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________________ २७८ सानुवाद व्यवहारभाष्य गया हो और दो वर्गों के बीच एक वर्ग चला गया हो तो यह करना ३०२०. जधा विज्जानरिंदस्स, जं किंचिदपि भासियं। चाहिए विज्जा भवति सा चेह, देसे काले य सिज्झति।। ३०१३. आसन्नमणावाए, आणंते व जहिं गणहरागम्म। जैसे विद्याचक्रवर्ती जो कुछ कहता है वह विद्या होती है। जणणात अभिक्खामण, आणाविज्जऽन्नहिं वावि॥ वह इस जगत् में देश अथवा काल में सिद्ध होती है। यदि निर्गत आर्यिका-वर्ग निकट हो, अनापाय हो-निर्भय ३०२१. जहा य चक्किणो चक्कं, पत्थिवेहिं पि पुज्जति। हो, तो उन आर्यिकाओं को अपने गण के साथ बुला लिया जाता न यावि कित्तणं तस्स, जत्थ तत्थ व जुज्जती।। है। यदि सापाय हो तो उनके आचार्य आते हैं। उस वर्ग के आने जैसे चक्रवर्ती का चक्र राजाओं से भी पूजा जाता है फिर पर अथवा उनके आचार्य के आने पर जहां जनज्ञात भंडन हुआ भी चक्र का कीर्तन यत्र-तत्र आवश्यक नहीं होता। था, वहां उनको ले जाते हैं अथवा अन्यत्र ले जाकर परस्पर ३०२२. तहेहट्ठगुणोवेता, जिणसुत्तीकता वई। क्षमापना कराई जाती है। पुज्जते न य सव्वत्थ, तीसे झाओ तु जुज्जती।। ३०१४. वितिगिटुं खलु पगतं, एगंतरिओ य होति उद्देसो। इसी प्रकार इस जगत् में आठ गुणों से युक्त जिनेश्वर देव __ अव्वितिगिट्ठविगिटुं, जध पाहुडमेव नो सुत्तं॥ की सूत्रीकृत वाणी पूजी जाती है किंतु सर्वत्र उसका आध्याता यहां व्यतिकृष्ट का अनुवर्तन है। उद्देश एकांतरित होता है। प्राप्त नहीं होता किंतु यथोक्त देश और काल में ही प्राप्त होता है। अव्यतिकृष्ट विकृष्ट समय में भी प्राभृत आदि का स्वाध्याय किया ३०२३. निदोसं सारवंतं च, हेतुजुत्तमलंकितं। जा सकता है, पूर्णसूत्र का नहीं। उवणीयं सोवयारं च, मितं मधुरमेव य॥ ३०१५. लहुगा य सपक्खम्मी, गुरुगा परपक्ख उद्दिसंतस्स। वाणी के आठ गुण ये हैं-निर्दोष, सारयुक्त, हेतुयुक्त, ___ अंगं सुतखंधं वा, अज्झयणुद्देस थुतिमादी॥ अलंकारयुक्त, उपनीत, सोपचार, मित और मधुर। यदि विकृष्ट अर्थात् उद्घाटपौरुषी काल में सपक्ष सपक्ष को ३०२४. पुव्वण्हे वावरण्हे य, अरहो जेण भासती। वाचना देता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त है, परपक्ष को एसा वि देसणा अंगे, जं च पुव्वुत्तकारणं ।। वाचना देने पर प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का। अंग, श्रुतस्कंध, अर्हत् पूर्वाह्न और अपराह्न में बोलते हैं, यही देशना अंगों अध्ययन, स्तुति आदि का उद्देश देने पर यह प्रायश्चित्त है। में निबद्ध है। इसलिए अकाल में इसका पठन-पाठन नहीं होना ३०१६. एक दुगे तिसिलोगा, थुतीसु अन्नेसि होति जा सत्त। चाहिए। निशीथाध्ययन में इसका कारण पहले ही बताया जा देविंदत्थयमादी, तेणं तु परं थया होति। चुका है। एक, दो, तीन, श्लोक पर्यंत स्तुति, चार आदि श्लोकवाला ३०२५. रत्तीदिणाण मज्झेसु, उभओ संज्झओ अवि। स्तव होता है। अन्य आचार्यों के मत में एक श्लोक से सात चरंति गुज्झगा केई, तेण तासिं तु नो सुतं॥ श्लोक पर्यंत स्तुति और उससे परे स्तव होता है, रात और दिन के मध्य अर्थात् प्रातः और संध्या में तथा जैसे-देवेंद्रस्तव आदि। दोनों संध्याओं-अर्थात् मध्यान्हसंध्या, अर्धरात-संध्या-ये ३०१७. अट्टहा नाणमायारो, तत्थ काले य आदिमो। अकाल हैं। इन चारों संध्याओं में श्रुत का पठन-पाठन नहीं करना अकालझाइणा सो तु, नाणायारो विराधितो॥ चाहिए, क्योंकि इन वेलाओं में गुह्यक देव घूमते हैं। ज्ञानाचार आठ प्रकार का है। उसमें 'काल' पहला है। ३०२६. जाव होमादिकज्जेसु, उभओ संज्झओ सुरा। अकालध्यायी ज्ञानाचार की विराधना करता है। लोगेण भासिया तेण, संझावासगदेसणा।। ३०१८. कालादिउवयारेणं, विज्जा न सिज्झए विणा देति। शिष्य ने प्रश्न किया कि फिर संध्या में आवश्यक कैसे रंधे व अवद्धंसं, सा वा अण्णा व से तहिं॥ किया जाता है? आचार्य कहते हैं-दोनों संध्याओं में गुह्यक देव काल आदि के उपचार से विद्या सिद्ध होती है। उसके बिना होम आदि कार्यों में लोगों द्वारा आहूत होने के कारण वहां ठहर छिद्र को प्राप्त कर उस विद्या की अधिष्ठात्री देवी अथवा अन्य जाते हैं। इसलिए संध्या में आवश्यक की देशना की जाती है। क्षुद्रदेवता उस विद्या का अवध्वंस कर देता है। ३०२७. एते उ सपक्खम्मी, दोसा आणादओ समक्खाया। ३०१९. सलक्खणमिदं सुत्तं, जेण सव्वण्णुभासितं। परपक्खम्मि विराधण, दुविधेण विसेण दिलुतो।। सव्वं च लक्खणोवेयं, समधिटुंति देवया।। स्वपक्ष में इनके उद्देशन से आज्ञा आदि दोष कहे गए हैं। यह सूत्र सलक्षण है क्योंकि यह सर्वज्ञभाषित है। सभी परपक्ष के उद्देशन से संयमविराधना होती है। वहां दो प्रकार के लक्षणोपेत वस्तुएं देवता समधिष्ठित होती हैं। विष दृष्टांत है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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