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________________ 1 + सातवां उद्देशक ॥ ३०००. काले व उवसंतो वज्जिज्जतो व अन्नमन्नेहिं । खीरादिसलक्षीण व देवय गेलण्णपुट्ठो वा ॥ कालांतर में वह मुनि उपशांत हो गया। वह स्वदेश आया। परस्पर मुनि उसका विवर्जन यह कह कर करते कि यह अधिकरणकारी है। वह क्षीराश्रवादि लब्धिमान् साधुओं के कथन से अथवा देवता के कथन से, अथवा ग्लानत्व से स्पृष्ट होने पर (वह सोचता है यदि मेरी मृत्यु साधिकरण में होगी तो मैं विराधक हो जाऊंगा।) ३००१. गंतुं खामेयव्वो, अधव न गच्छेज्जिमेहि दोसेहिं । नीयल्लगउवसग्गो, तहियं गतस्स व होज्जा तु ॥ जहां अधिकरण हुआ है वहीं जाकर उसका उपशमन करना चाहिए। अथवा इन वक्ष्यमाण दोषों के कारण वह वहां नहीं जाए। दोष जैसे उसके स्वजन वहां हैं। वे वहां जाने पर उपसर्ग करते हैं। ३००२. सो गामो उट्ठितो होज्जा, अंतरा वावि जणवतो । निण्हवगणं गतो वा, तरति अथवावि पडिचरती ॥ ३००३. अब्भुज्जय पडिवज्जे, भिक्खादि अलंभ अंतर तहिं वा । राया दुट्ठे ओमं, असिवं वा अंतर तहिं वा ॥ ३००४. सबरपुलिंदादिभयं, अंतर तहियं च अधव होज्जाहि । एतेहि कारणेहि बच्चंतं कं पि अप्पाहे ॥ वह गांव उजड़ गया हो अथवा बीच में कोई जनपद उत्थित हो गया हो, अथवा जिसके साथ अधिकरण हुआ हो वह निन्हव गण में प्रविष्ट हो गया हो, अथवा अन्यत्र चला गया हो अथवा स्वयं ग्लान हो जाने के कारण वहां जाना अशक्य हो अथवा वह किसी ग्लान की परिचर्या कर रहा हो अथवा वह स्वयं अभ्युद्यतविहार स्वीकार करना चाहता हो अथवा अधिकरणक्षेत्र में भिक्षा का अलाभ हो अथवा बीच में राजा द्विष्ट हो गया हो, अथवा अकाल या अशिव का प्रकोप हो अथवा बीच में शबरों, पुलिंद्रों आदि का भय हो - इन कारणों से वह वहां नहीं जा सकता। किंतु वहां जाने वाले किसी श्रावक आदि के साथ संदेश भेज देता है कि मैं अब उपशांत हूं। इन कारणों से आ नहीं सकता। मुझे क्षमा करें। ३००५. गंतूण सो वि तहियं सपक्खपरपक्खमेव मेलित्ता । खामेति सो वि कज्जं व दीवए नागतो जेण ॥ जिसके साथ संदेश दिया है वह वहां जाकर, जिनको अधिकरण ज्ञात था उन स्वपक्ष, परपक्ष को एकत्रित कर क्षमायाचना करता है और उसके न आने के कारणों को साक्षात् बताता है, कहता है। ३००६. अह नत्थि कोवि वच्चतो, ताधे उवसमेती अप्पणा । खामेती जत्थ णं, मिलती अदिट्ठे गुरुणंतियं ॥ यदि वहां जाने वाला कोई न हो तो स्वयं उपशांत हो जाता Jain Education International २७७ है। अब वह जहां मिलता है वहां वहां क्षमायाचना करता है। यदि वह कहीं दृष्ट नहीं होता, नहीं मिलता तो गुरु के पास जाकर उस मुनि को मन में कर क्षमायाचना कर लेता है। ३००७. निम्गंधीणं पाहुड, वितोसवेयव्व होति वितिगिहूं। किघ पुण होज्जुप्यण्णं, होज्जुप्पण्णं, चेइयघरवंदमाणीणं ॥ ३००८. चेइयथुतीण भणणे, उण्हे अण्णाउ बाहि अच्छंती । परिताविया मु धणियं, कोइलसद्दाहि तुब्भाहिं || निग्रंथियों का व्यतिकृष्ट (क्षेत्रविकृष्ट) कलह को उपशांत करना चाहिए | उनमें अधिकरण क्यों होता है ? कारण है-कुछ आर्यिकाएं चैत्यगृह वंदन के लिए गईं। वे चैत्यस्तुति करने लगीं। कुछ अन्य आर्यिकाएं भी आईं। भीतर अवकाश के अभाव में वे बाहर आतप में खड़ी रहीं। उन्होंने परितप्त होते हुए कहा- तुम कोकिलकंठियों के शब्दों से हम अत्यंत परितापित हुईं हैं। ३००९. नग्घंति णाडगाई, कलं पि कलभाणिणीण तुम्माणं । विप्पगते भवतीणं, जायंत भयं नरवतीए ॥ हथिनी जैसी मुखाकृति वाली तुम श्रमणियों के आगे तो नाटकों का भी कोई मूल्य नहीं है। तुम्हारा तिरस्कार करते हुए हमें राजा का भय लगता है। ३०१०. इति असहण उत्तुयया मज्झत्यातो समति तत्येव । असुणाव सव्वगणभंडणे व गुरुसिट्टिमा मेरा ॥ इस प्रकार असहिष्णु आर्यिकाओं द्वारा उत्तेजित वे आर्यिकाएं कुपित हो सकती हैं। ऐसी स्थिति में मध्यस्थ आर्यिकाएं वहीं उनका उपशमन कर दें। मध्यस्थ आर्यिकाओं के अभाव में समस्त गण का भंडन होता है। ऐसी स्थिति में अपनेअपने गुरु का अनुशासन मानना चाहिए। वहां यह मर्यादा है३०११. गणधर गणधरगमणं, एगायरियस्स दोनि वा वग्गा आसन्नागम दूरे, व पेसणं तं च वितियपदं ॥ यदि समस्त गण का भंडन हो तो आर्यिकाएं अपने- अपने आचार्य के पास जाएं। यदि दोनों आर्यकाओं का वर्ग एक ही आचार्य का हो तो एक ही आचार्य के पास जाएं। आचार्य दोनों वर्गों में परस्पर क्षमायाचना कराएं। यदि एक वर्ग चला गया हो और वह निकट हो तो उसे बुला ले। यदि दूर चला गया हो तो वृषभों को भेजें। वे क्षमापना करें / करायें। अपवादपद में पूर्वोक्त विधि पालनीय है। ३०१२. चेइयघर णिइत्ता, जत्थुप्पन्नं च तत्थ विज्झवणं । लज्जभया व असिट्ठे, दुवेगतर निग्गम इमं तु ॥ अपने-अपने गुरु को निवेदन कर देने पर दोनों वर्गों की आर्यिकाओं के दोनों आचार्य उन दोनों वर्गों को चैत्यगृह में ले जाते हैं अथवा जहां अधिकरण हुआ है वहां ले जाकर उसको उपशांत करते हैं। लज्जा, भय आदि के कारण गुरु को न कहा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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