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सातवां उद्देशक
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३०२८. दव्वविसं खलु दुविधं, सहजं संजोइमं च तं बहुहा। जा सकता है। कालिकश्रुत प्रथम पौरुषी के उद्दिष्ट काल में अर्थात्
एमेव य भावविसं, सचेतणाऽचेतणं बहुधा॥ प्रथम प्रहर और अंतिम प्रहर में पढ़ा जा सकता है। उत्कालिक विष के दो प्रकार हैं-द्रव्यविष और भावविष। द्रव्यविष दो श्रुत व्यतिकृष्ट काल-संध्या में भी पढ़ा जा सकता है। प्रकार का है-सहज और संयोगिम। संयोगिम अनेक प्रकार का ३०३५. पत्ताण समुद्देसो, अंगसुतक्खंध पुव्वसूरम्मि। होता है। इसी प्रकार भावविष के भी दो प्रकार हैं-सहज और
इच्छा निसीहमादी, सेसा दिण पच्छिमादीसु॥ संयोगिम। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-सचेतन और अचेतन। इसके जब पठन या श्रवण के द्वारा उद्देशन प्राप्त हो जाता है तब भी बहुत प्रकार हैं।
उद्देश का समुद्देश होता है। अंग अथवा श्रुतस्कंध की अनुज्ञा ३०२९. सहजं सिंगियमादी, संजोइम-घत-महुं च समभागं। पूर्वसूर्य (उद्घाट-पौरुषी) में दी जाती है। जो आगाढ़ योग है
दव्वविसं णेगविहं, एत्तो भावम्मि वोच्छामि॥ निशीथ आदि की इच्छा, उनकी अनुज्ञा प्रथम और चरम पौरुषी
सहज द्रव्यविष है-शृंगिक। संयोगिम है-घृत और मधु का में होती है। शेष अध्ययन अथवा उद्देशक की अनुज्ञा दिन की समभाग में मिश्रण। द्रव्यविष के अनेक प्रकार हैं। आगे मैं पश्चिम पौरुषी में तथा रात्रि के प्रथम और चरम पौरुषी में होती भावविष के विषय में कहूंगा। ३०३०. पुरिसस्स निसग्गविसं, इत्थी एवं पुमं पि इत्थीए। ३०३६. दिवसस्स पच्छिमाए, निसिं तु पढमाय पच्छिमाए वा। संजोइमो सपक्खो, दोण्ह वि परपक्ख नेवत्थो।।
उद्देसज्झयऽणुण्णा, न य रत्ति निसीहमादीणं ।। पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष निसर्गविष
उद्देशक और अध्ययनों की अनुज्ञा दिन के पश्चिम प्रहर में सहजविष है। संयत और संयती दोनों का संयोगिम विष तथा रात्रि के प्रथम और अंतिम प्रहर में होती है। निशीथ आदि है-स्वपक्ष का परपक्षनेपथ्य। जैसे-संयत के लिए स्त्रीनेपथ्य आगाढ़ योगों की अनुज्ञा दिन के प्रथम और चरम प्रहर में दी युक्त पुरुष तथा संयती के लिए पुरुषनेपथ्य युक्त स्त्री।
जाती है, रात्री में नहीं। ३०३१. घाण-रस-फासतो वा, दव्वविसं वा सइंऽतिवाएति। ३०३७. आदिग्गहणा दसकालिओत्तरज्झयण चुल्लसुतमादी। सव्वविसयाणुसारी, भावविसं दुज्जयं असइं॥
ऐतेसि भइयऽणुण्णा, पुव्वण्हे वावि अवरण्हे ।। घ्राणेंद्रिय, रसनेंद्रिय तथा स्पर्शनंद्रिय से गृहीत द्रव्यविष 'आदि' शब्द से दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, क्षुल्लकल्पप्राणी का एक बार अतिपात करता भी है और नहीं भी करता। श्रुत, औपपातिक का ग्रहण किया है। इनकी अनुज्ञा वैकल्पिक उससे प्राणी मरता भी है और नहीं भी मरता। भावविष है-पूर्वाह्न में भी हो सकती है और अपराह्न में भी हो सकती है। सर्वविषयानुसारी (पांचों इंद्रियविषयों का संप्रापक), दुर्जय तथा ३०३८. नंदीभासणचुण्णे, उ विभासा होति अंगसुतखंधे। अनेक बार अतिपात करता है, अनेक बार मारता है।
मंगलसद्धाजणणं, अज्झयणाणं च वुच्छेदो।। ३०३२. जम्हा एते दोसा, तम्हा उ सपक्खसमणसमणीहिं। अंग तथा श्रुतस्कंध की अनुज्ञा के समय नंदीभाषण
उद्देसो कायव्वो, किमत्थ पुण कीर उद्देसो॥ ज्ञानपंचक का उच्चारण किया जाता है तथा चूर्ण-वासक्षेप किया जिसके कारण ये दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए श्रमण और जाता है अथवा वैकल्पिकरूप में केसर का क्षेप किया जाता है। श्रमणियों को स्वपक्ष में ही उद्देशन करना चाहिए। शिष्य ने शिष्य पूछता है-इस प्रकार अनुज्ञा क्यों की जाती है? आचार्य पूछा-उद्देशन करने का कारण क्या है ? अनुद्दिष्ट क्यों नहीं पढ़ा कहते हैं-नंदीभाषण और वासक्षेप से मंगल होता है, दूसरों में जाता?
श्रद्धा पैदा होती है। अन्यथा अध्ययनों का व्यवच्छेद हो जाता है। ३०३३. बहुमाणविणयआउत्तया य उद्देसतो गुणा होति। (अनुज्ञात न होने पर दूसरों को नहीं दिया जाता, अतः व्यवच्छेद
पढमोद्देसो सव्वो, एत्तो वोच्छं करणकालं॥ हो जाता है।)
उद्दिष्ट करने पर श्रुत अथवा श्रुतधारक के प्रति बहुमान ३०३९. बितियपदं आयरिए, अंगसुतक्खंधउद्दिसंतम्मि। होता है विनय का प्रयोग होता है तथा आयुक्तता (कार्यसंलग्नता)
मंगलसद्धा-भय-गोरवेण तध निद्विते चेव॥ होती है। उद्देशन के ये गुण हैं। यह सारा प्रथमोद्देश है-समस्त स्वपक्ष में उद्देश कर्त्तव्य है, न परपक्ष में। यह है उत्सर्ग अंग आदि विषयक उद्देश है। अब आगे स्वाध्यायकरण काल विधि। इसमें अपवादविधि यह है कि प्रवर्तिनी के पास वह श्रुत कहूंगा।
नहीं है तो आचार्य परपक्ष में-निग्रंथियों को भी अंग, श्रुतस्कंध ३०३४. थवथुतिधम्मक्खाणं, पुव्वुद्दिलु तु होति संज्झाए। की उद्देशना देते हैं। आचार्य द्वारा उद्देशन दिए जाने पर उनमें
कालियकाले इतरं, पुव्वुद्दिटुं विगिढे वि॥ मंगलबुद्धि, श्रद्धा, भय और गौरव का भाव उत्पन्न होता है। वे इन स्तव, स्तुति और धर्माख्यान पूर्वोद्दिष्ट संध्या में भी किया कारणों से अंग और श्रुतस्कंध को पूरा हस्तगत कर लेती है।
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