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सानुवाद व्यवहारभाष्य ३०४०. एमेव संजती वा, उदिसती संजताण बितियपदे। ३०४६. पुव्वं वण्णेऊणं, संजोगविसं च जातरूवं च। असतीय संजताणं, अज्झयणाणं च वोच्छेदो।
आरोवणं च गुरुयं, न हु लब्भं वायणं दाउं॥ इसी प्रकार अपवादपद में संयतियां भी संयतों को उद्देश इससे पूर्व संयोगविष, जातरूपविष-सहजविष तथा देती हैं। यदि वह श्रुत या अध्ययन संयतों को ज्ञात न हो और आरोपणा गुरुक प्रायश्चित्त का वर्णन कर अब वाचना देने की संयतियां उनको उद्देश न दे तो उसका व्यवच्छेद हो जाता है। बात लभ्य ही नहीं होती। ३०४१. एवं ता उद्देसो, अज्झाओ वी न कप्प वितिगिटे। ३०४७. कारणियं खलु सुत्तं, असति पवायंतियाय वाएज्जा। दोण्हं पि होति लगा, विराधणा चेव पुव्वुत्ता।
पाढेण विणा तासिं, हाणी चरणस्स होज्जाही।। जैसे कहा गया है कि व्यतिकृष्ट काल (अकाल) में उद्देश यह सूत्र कारणिक है। प्रवाचना देने वाली प्रवर्तिनी के नहीं दिया जाता, वैसे ही अध्याय भी नहीं दिया जाता। दोनों में अभाव में मुनि साध्वी को वाचना दे। वाचना के बिना उनके लघुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा पूर्वोक्त विराधना
चारित्र की हानि होती है। आत्मविराधना तथा ज्ञानविराधना होती है।
३०४८. जाओ पव्वइताओ, सग्गं मोक्खं च मग्गमाणीओ। ३०४२. बितियविगिढे सागारियाए कालगत असति वुच्छेदो।
जदि नत्थि नाण-चरणं, दिक्खा हु निरत्थिगा तासि॥ एवं कप्पति तहियं, किं ते दोसा न संती उ।।
स्वर्ग और मोक्ष की कामना से जो प्रव्रजित हुई हैं, यदि अपवाद पद में व्यतिकृष्ट काल में भी कुछेक कारणों से ।
ज्ञान और चारित्र न हो तो उनकी दीक्षा निरर्थक है। अध्याय आदि का पठन कल्पता है। जैसे-कारणवश साधु
३०४९. सव्वजगुज्जोतकरं, नाणं नाणेण नज्जते चरणं। सागारिक वसति में स्थित हैं अथवा कोई मुनि कालगत हो गया
नाणम्मि असंतम्मी, अज्जा किह नाहिति विसोधिं| है, उसके पास जागरण करना अत्यावश्यक है, अथवा श्रुतदाता
समस्त जगत् को उद्योत करने वाला है ज्ञान। ज्ञान से कालगत हो गया और वह श्रुत विस्मृत न हो जाए, उसका
चारित्र की अवगति होती है। ज्ञान के अभाव में आर्यिकाएं
विशोधि को कैसे जान पाएंगी? व्यच्छेद न हो जाए-इन कारणों से श्रुत का परावर्तन कल्पता है।
३०५०. नाणम्मि असंतम्मी, चरित्तं पि न विज्जते। शिष्य पूछता है-ऐसा करने से क्या आज्ञाभंग आदि वे दोष नहीं
चरित्तम्मि असंतम्मी, तित्थे नो सचरित्तया।। होते?
ज्ञान के अभाव में चारित्र भी नहीं होता। तीर्थ में चारित्र के ३०४३. भण्णति जेण जिणेहिं, समणुण्णायाइ कारणे ताई।
अभाव में आर्यिकाओं की स्वचरित्रता नहीं होती। 'तो दोस न संजायति, जयणाइ तहिं करेंतस्स।।
३०५१. अचरित्ताए तिथ्थस्स, निव्वाणं नाभिगच्छति। आचार्य कहते हैं-जिनेश्वर ने जिन कारणों से अकाल में
निव्वाणस्स असती य, दिक्खा होति निरत्थिगा। श्रुतपठन की अनुज्ञा दी है, यदि यतनापूर्वक उसे किया जाता है
तीर्थ की अचरित्रता से आर्यिका का निर्वाण-गमन नहीं तो कोई दोष नहीं होता।
होगा। निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक होती है। ३०४४. कालगतं मोत्तूणं, इमा अणुप्पेहदुब्बले जतणा।
३०५२. तम्हा इच्छावेती, एतासिं नाण-दसण-चरित्तं। अन्नवसधिं अगीते, असती तत्थेवणुच्चेणं ।।
नाण चरणेण अज्जा, काहिति अंतं भवसयाणं॥ कालगत को छोड़कर शेष कारणों में, जो मुनि अनुप्रेक्षा में
इसलिए आर्यिकाओं के ज्ञान, दर्शन, चारित्र की बलात् दुर्बल है, उसके लिए यह यतना है। वह अन्य वसति में जाकर
इच्छा कराई जाती है। वे ज्ञान और चारित्र की आराधना से श्रुत का परावर्तन करे जिससे कि अगीतार्थ मुनि उस श्रुत का
सैकड़ों भवों को नाश कर देती हैं। श्रवण न कर सके। अन्य वसति के अभाव में उसी वसति में ।
३०५३. नाणस्स दंसणस्स य, चारित्तस्स य महाणुभावस्स। मंदस्वर में श्रुत का परावर्तन करे। कालगत को छोड़कर दूसरी
तिण्हं पि रक्खणट्ठा, दोसविमुक्को पवाएज्जा। वसति में न जाएं, वहीं मंदस्वरों में परावर्तन करे।
महान् प्रभावक ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों की रक्षा ३०४५. कप्पति जदि निस्साए, वितिगिढे संजतीण सज्झाओ। के लिए मनि दोषों से विप्रमुक्त होकर आर्यिकाओं को प्रवाचना दे।
इति सुत्तेणुद्धारे, कतम्मि उ कमागतं भणति॥ ३०५४. अप्पसत्येण भावेण, वायतो दोससंभवे। निग्रंथ की निश्रा में निग्रंथी को व्यतिकृष्ट काल में स्वाध्याय
केरिसो अप्पसत्थो उ, इमो सो उ पवुच्चति॥ करना कल्पता है-इस प्रकार सूत्र के द्वारा स्वीकृत करने पर . अप्रशस्त भाव से वाचना देने वाला दोषवान् होता है। शिष्य क्रमागत बात कहता है।
अप्रशस्तभाव कैसा होता है-यह पूछे जाने पर आचार्य कहते
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