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सातवां उद्देशक
२८१ हैं-वह अप्रशस्तभाव यह है
छोड़कर जो साधुओं के स्थान में साध्वियों का गमन होता है, वह ३०५५. परिवारहेउमन्नट्ठयाय वभिचारकज्जहेउं वा। सारा निष्कारण होता है।
आगारा वि बहुविधा, असंवुडादी उ दोसा उ॥ ३०६३. थेरा सामायारिं, अज्जा पुच्छंति ता परिकथूति। परिवार के हेतु से, अन्नपान के लिए तथा व्यभिचार के
आलोयण सच्छंदं, वेंटल गेलण्ण पाहुणिया।। लिए, यह अनेक प्रकार के असंवृत गृह संपादित करेगी-इस हेतु स्थविर-आचार्य आर्यिका को सामाचारी के विषय में से वाचना देना अप्रशस्तभाव है।
पूछते हैं। आर्यिका सामाचारी बताती है-साध्वियां आलोचना ३०५६. गणिणी कालगयाए, बहिया न य विज्जते जया अण्णा। नहीं करतीं, वे स्वच्छंद हैं, वे वेंटल-जादू, टोना का प्रयोग करती
___ संता वि मंदधम्मा, मज्जायाए पवाएज्जा॥ हैं, ग्लान की सेवा नहीं करती और वे प्राघूर्णकों के प्रति वत्सलता
गणिनी के कालगत हो जाने पर बाहर कोई जब दूसरी नहीं दिखातीं। प्रवाचिका न हो और यदि कोई हो और वह मंदधर्मा हो तो मुनि ३०६४. चित्तलए सविकारा, बहुसो उच्छोलणं च कप्पढे। मर्यादापूर्वक प्रवाचना दे।
थलि घोड वेससाला, जंत वए काहिए निसेज्जा। ३०५७. आगाढजोगवाहीए, कप्पो वावि होज्ज असमत्तो। वे चित्रल वस्त्र, सविकार, बहुशः प्रक्षालन, कल्पस्थ,
। सुत्ततो अत्थतो वावी, कालगया य पवत्तिणी॥ स्थली, घोटक, वेश्यावाटक, शाला, यंत्रशाला, व्रज-गोकुल, ३०५८. अन्नागय सगच्छम्मी, जदि नत्थि पवाइगा। काथिक तथा गृहनिषद्या (इन दोनों ६३,६४ गाथाओं का विस्तार
अण्णगच्छा मणुण्णं तु, आणयंति ततो तहिं॥ आगे की आथाओं में।) ३०५९. सा तत्थ निम्मवे एक्कं, तारिसीए असंभवे। ३०६५. जा जत्थ गता सा ऊ, नालोए दिवसपक्खियं। उग्गहधारणकुसलं, ताधे नयति अन्नत्थ।।
सच्छंदाओ वयणे, महतरियाए न ठायंति॥ यदि कोई संयती आगाढ़योगवाहिनी है अथवा किसी जो जहां जाती हैं, लौटकर आलोचना नहीं करतीं। संयती के प्रकल्पाध्ययन सूत्रतः और अर्थतः अभी समाप्त नहीं दैवसिक और पाक्षिक अतिचारों की आलोचना नहीं करतीं। सभी हुआ है, और इसी मध्य प्रवर्तिनी कालगत हो जाए और स्वगच्छ स्वच्छंद हैं। महत्तरिका-प्रवर्तिनी आदि के वचनों का पालन नहीं में दूसरी कोई प्रवाचिका न हो तो अन्य गच्छ से मनोज्ञ करतीं। (सांभोजिक) आर्यिका को वहां से वसति में लाता है। वह वहां ३०६६. विंटलाणि पउंजंति, गिलाणाए वि न पाडितप्पंति। आकर एक आर्यिका का निर्माण करती है (उसे श्रुतसम्पन्न करती
आगाढ वरुणागाढं, करेंति ऽणागाढ आगाढं। है)। वैसी यदि मनोज्ञ आर्यिका न मिले तो वहां से अवग्रह- ३०६७. अजतणाय व कुव्वंती, पाहुणगादि अवच्छला। धारणाकुशल आर्यिका को अन्यत्र (गणांतर में) ले जाते हैं।
चित्तलाणि नियंसेंति, चित्ता रयहरणा तथा।। ३०६०. संविग्गमसंविग्गा, परिच्छियव्वा य दो वग्गा तु। ये विंटल (खिटिका, चप्पुटिका) का प्रयोग करती हैं। ये
__अपरिच्छणम्मि गुरुगा, पारिच्छ इमेहि ठाणेहिं।। ग्लान की प्रतिचर्या नहीं करतीं। ये आगाढ़ को अनागाढ़ तथा
वहां उनको दोनों वर्गों-संयतवर्ग और संयतिवर्ग की अनागाढ़ को आगाढ़ करती हैं। यह सारा अयतनापूर्वक करती परीक्षा करनी चाहिए। परीक्षा न करने पर चार गुरुमास का हैं। ये प्राघूर्णकों के प्रति अवत्सल हैं। ये चित्रल (विचित्र रेखाओं प्रायश्चित्त आता है। परीक्षा के ये स्थान हैं
वाले) वस्त्र पहनती हैं। ये नाना प्रकार के रजोहरण रखती हैं। ३०६१. वच्चंति तावि एंती, भत्तं गेण्हंति ताए व देंति।। ३०६८. गइविन्भमादिएहिं, आगार-विगार तह पदंसेंति। कंदप्प-तरुण-बउसं, अकालऽभीता य सच्छंदा॥
जध किढगाण वि मोहो, समुदीरति किं णु तरुणाणं॥ मुनि साध्वियों के उपाश्रय में जाते हैं, साध्वियां मुनियों के ये गतिविभ्रम आदि तथा आकार-विकारों का इस प्रकार स्थान में आती हैं। साधु-साध्वी परस्पर भक्तपान देते-लेते हैं, प्रदर्शित करती हैं जिससे वृद्ध व्यक्तियों के मन में भी मोह की तरुण साधु-साध्वी परस्पर कंदर्पकथा करते हैं, बकुशभाव समुदीरणा हो जाती है, तरुणों की तो बात ही क्या ? धारण करते हैं। दोनों वर्ग अकालचारी हैं। संयत आचार्य से नहीं ३०६९. बहुसो उच्छोलेंती, मुह-नयणे-हत्थ-पाय-कक्खादी। डरते और संयती प्रवर्तिनी से। दोनों वर्ग स्वच्छंद हैं।
गेण्हण मंडण रामण, भोइंति व ताउ कप्पढे| ३०६२. अट्ठमी पक्खिए मोत्तुं, वायणाकालमेव य। ये मुख, नयन, हाथ, पैर कक्षा आदि का अनेक बार
पुव्वुत्ते कारणे वावि, गमणं होति अकारणं॥ प्रक्षालन करती हैं। ये गृहस्थों के बालकों को ग्रहण करती हैं
अष्टमी, पाक्षिक तथा वाचनाकाल और पूर्वोक्त कारणों को उन्हें उठाती हैं, उनका मंडन करती है, उनको खेलाती हैं अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only
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