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सानुवाद व्यवहारभाष्य भोजन कराती हैं।
(जैसे दूसरे और तीसरे विकल्प में) अथवा दोनों असंविग्न हैं। ३०७०. थलि घोडादिट्ठाणे, वयंति ते यावि तत्थ समुति। (जैसे पहले विकल्प में) इन तीनों भंगों में निक्षेपणा करने से
वेसित्थी संसग्गी, उवस्सओ वा समीवम्मि॥ प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का। चतुर्थ भंग शुद्ध होने पर भी ये
वे साध्वियां स्थली अर्थात् देवद्रोणी (जहां से देवमूर्ति का दोष होते हैं। जुलूस निकाला जाता है) तथा घोट-नीच जाति के लोगों का ३०७६. तरुणा सिद्धपुत्तादि, पविसंति नियल्लगाण नीसाए। एकत्रित होने के स्थान पर भिक्षा के लिए जाती हैं और यदा-कदा
महयरिय न वारेती, जे वि य पडिसेवते तहिं किं च॥ वे धूर्त लोग भी साध्वियों के उपाश्रय के पास एकत्रित हो जाते तरुण, सिद्धपुत्र आदि आत्मीय आर्यिकाओं की निश्रा में हैं। वेश्यागृहों के निकटवर्ती उपाश्रयों में रहने के कारण उन । वंदन करने के मिष से उपाश्रय में प्रवेश कर लेते हैं। महत्तरिका आर्यिकाओं का वेश्यास्त्रियों से संसर्ग रहता है।
यदि उनका निवारण नहीं करती है तो वे सिद्धपुत्र किसी आर्यिका ३०७१. तह चेव हत्थिसाला, घोडगसालाण चेव आसन्ने। की पर्युपासना करते हुए चिरकाल तक वहां रह जाते हैं।
जंति तह जंतसाला, काहीयत्तं च कुव्वंती॥ ३०७७. निक्खिवण तत्थ गुरुगा, वे आर्यिकाएं हस्तिशाला तथा घोटकशाला के पास घूमती
अह पुण होज्जा हु सा समुज्जुत्ता। हैं अथवा उनके निकटस्थ उपाश्रय में रहती हैं। वे यंत्रशालाओं में
चरणगुणेसुं नियतं, जाती हैं और काथिकत्व (नाना प्रकार की कथाएं) करती हैं।
वियक्खणा सीलसंपन्ना॥ ३०७२. थलि घोडादिनिरुद्धा, पसज्झगहणं करेज्ज तरुणीणं । वहां निक्षेपण करने पर भी चार गुरुमास का प्रायश्चित्त है
संकाइ होति तहियं, गोयर किमु पाडिवेसेहिं॥ अथवा वह महत्तरिका चरणगुणों में नियत है, विचक्षण है,
स्थली, घोट आदि स्थानों में निरुद्ध-एकत्रित लोग तरुण शीलसम्पन्न और सयंम में समुद्यत है, वह समस्त अयुक्त का स्त्रियों का बलात् ग्रहण कर लेते हैं। वहां गोचरचर्या के लिए वारण करती है, जैसेसाध्वियों को जाना भी शंका पैदा करती है तो भलां उनका ३०७८. समा सीस पडिच्छण्णे, चोदणासु अणालसा। पड़ोसी होना, उनके पड़ोस में रहना सदा शंकास्पद बना रहता
गणिणी गुणसंपन्ना, पसज्झा पुरिसाणुगा।।
३०७९. संविग्गा भीयपरिसा, उग्गदंडा य कारणे। ३०७३. सज्झायमुक्कजोगा,धम्मकथा विकह पेल्लणगिहीणं। सज्झायझाणजुत्ता य, संगहे य विसारया॥
गिहीनिसेज्जं च बाहंति संथवं व करेंती उ॥ ३०८०. विगहा विसोत्तियादिहिं, वज्जिता जा य निच्चसो। वे साध्वियां स्वाध्याययोग से मुक्त रहती हैं। धर्मकथा,
एयग्गुणोववेयाए, तीए पासम्मि निक्खिवे॥ विकथा तथा गृहस्थों को नानारूप में प्रेरणा देती रहती हैं। ये वह शिष्यों तथा प्रातिच्छिकों के प्रति सम व्यवहार करती गृहनिषद्या करती हैं तथा गृहस्थों के साथ संस्तव तथा परिचय है। उनको प्रेरणा या शिक्षा देने में अनलस है। वह गणिनी करती हैं।
गुणसंपन्न, अप्रसह्य-अप्रधृष्य तथा पुरुषानुगा–पुरुष के सदृश ३०७४. एवं तु ताहि सिढे, निक्खिवितव्वा उ ताउ कहियं तु। है। जो संविग्न है, भीतपरिषद् वाली है, कारण अर्थात् समय पर
दोसु वि संविग्गेसुं, निक्खिवितव्वा भवे ताउ॥ उग्रदंड देने वाली है, स्वाध्याय और ध्यान में युक्त है तथा संग्रह
इस प्रकार आर्यिका द्वारा अपने साध्वीसंघ की सामाचारी में विशारद है, जो नित्यशः-सर्वकाल में विकथा तथा विस्रोतकहने पर प्रश्न होता है कि अवग्रह-धारणा कुशल संयतियों को सेकाओं का वर्जन करने वाली है-इन गुणों से युक्त जो महत्तरिका कहां रखना चाहिए? आचार्य कहते हैं-उनको उस गच्छ में हो, उसके पास निक्षेपण करना चाहिए। रखना चाहिए जहां दोनों वर्ग-साधु-साध्वी वर्ग संविग्न हों। ३०८१. एयारिसाय असती, वाएज्जाहि ततो सयं। ३०७५. संजत-संजतिवग्गे, संविग्गेक्केक्क अहव दोहिं तु।
वाएंते य इमा तत्थ, विधी उ परिकित्तिया॥ निक्खिवण होति गुरुगा, अध पुण सुद्धे विमे दोसा॥ इस प्रकार की गणिनी के अभाव में स्वयं उस साध्वी को
संयतवर्ग में अथवा संयतिवर्ग में कोई एक वर्ग असंविग्न है वाचना दे। वाचना देते समय की यह विधि कही गई है। १. संयत-संयतीवर्ग संविग्न-असंविग्न के भेद से चार विकल्प होते हैं
४. न संयत अवसन्न होते हैं और न संयतियां अवसन्न होती हैं। १. संयत अवसन्न होते हैं, संयती भी अवसन्न होती हैं।
इस चतुर्थ भंग में दोनों वर्ग संविग्न हैं। यह भंग निक्षेपण के २. संयत अवसन्न होते हैं, संयतियां नहीं।
लिए स्वीकृत है। शेष भंग प्रतिषिद्ध हैं। ३. संयत अवसन्न नहीं होते, संयतियां अवसन्न होती हैं।
है।
वहार
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