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________________ १८० सानुवाद व्यवहारभाष्य . पर-) १८८३. तेणं कुडंबितेण उन्मामइलेण दोण्ह वी दंडो। पूर्वसूत्र आचार्य और उपाध्याय से अधिकृत थे तथा . दिण्णो सावि य तस्सा, जाया एवम्ह एताई। काल-ऋतुबद्ध तथा वर्षाकाल अधिकृत था। प्रस्तुत सूत्र जिससे कुलटा स्त्री के अपत्य पैदा हुआ उस कौटुम्बिक के आचार्य-उपाध्याय के ऋतुबद्ध काल में मरण होने से संबंधित है। राजकुल में जाने पर राजा ने दोनों को दंडित किया। वह स्त्री भी निश्रा और उपसंपद् एकार्थक हैं। यह पूर्वसूत्र से संबंध है। तब उसकी हो गई। इसी प्रकार ये भी हमारे ही होंगे। १८९१. अधवा एगतरम्मि उ, १८८४. पुणरवि य संजतित्ता, बेंती खरियाय अण्णखरएणं। आयरियगणिम्मि वावि आहच्च। जं जायति खरियाधिवस्स, होति एवम्ह एताई। वीसुंभूते गच्छंति, पुनः श्रमणी के समानकुल वाले कहते हैं-गधी के अन्य फड्डगं फडुगा व गणं॥ व्यक्ति के गधे से जो अपत्य होते हैं, वह सब गधी के स्वामी के अथवा आचार्य या गणी-उपाध्याय इन दोनों में से किसी होते हैं। इसी प्रकार ये सब हमारे हैं। एक का अकस्मात् मरण हो जाने पर गच्छ वाले स्पर्द्धक रूप में १८८५. गोणीणं. संगेल्लं, नटुं अडवीय अण्णगोणेणं। हो जाते हैं अथवा स्पर्द्धक गण में चले जाते हैं। ___ जायाइ वत्थगाई, गोणाहिवतीउ गेण्हंति॥ १८९२. लोगे य उत्तरम्मी, उवसंपद लोगिगी उ रायादी। गायों का एक समूह जंगल में चला गया। वहां अन्य व्यक्ति के सांड से बछड़े हुए। उन सबको गायों का स्वामी ग्रहण करता राया वि होति दुविधो, सावेक्खो चेव निरवेक्खो।। है। (इसी प्रकार ये सब हमारे हैं। ऐसा श्रमणीवर्ग वालों के कहने उपसंपदा के दो प्रकार हैं। लोक में होने वाली लौकिक और उत्तर में अर्थात् लोकोत्तर में होने वाली लोकोत्तरिकी। लौकिक १८८६.उब्भामिय पुव्वुत्ता, अहवा नीता उ जा परविदेसं। उपसंपदा राजा आदि की होती है। (राजा के मरने पर युवराज तस्सेव उ सा भवती, एवं अम्हं तु आभवती॥ उपसंपद्य होता है। युवराज भी अंत में दूसरे को स्थापित करता श्रमणसत्क वाले कहते हैं-पूर्वोक्त उदभ्रामिका- कुलटा के है।) राजा दो प्रकार का होता है-सापेक्ष तथा निरपेक्ष। अपत्य हुआ अथवा उसे परदेश ले जाया गया, वह उसी की होती १८९३. जुवरायम्मि उ ठविते, पया उ बंधंति आयतिं तत्थ। है, उसी प्रकार ये अपत्य भी हमारे ही होते हैं। नेव य कालगतम्मी खुब्भंति पडिवेसिय नरिंदा।। १८८७. इतरे भणंति बीयं, तुब्भं तं नीयमन्नखेत्तं तु। युवराज की स्थापना कर देने पर प्रजा आयति-- तं होति खेत्तियस्सा, एवं अम्हं तु एताइं। उत्तरकालिकी श्रद्धा को उसके प्रति बांध देती है। युवराज की दूसरे अर्थात् संयतीसत्क वाले कहते हैं-तुम्हारे बीजों को स्थापना किए बिना राजा का अकस्मात् निधन हो जाने पर अन्य क्षेत्र में जाकर बो दिए। उनसे उत्पन्न फसल उस क्षेत्रस्वामी पड़ौसी राजा राज्य को क्षुब्ध करने लग जाते हैं। की होती है। इसी प्रकार ये हमारे हैं। १८९४. पच्छन्नराय तेणे, आत-परो दुविध होति निक्खेवो। १८८८. रण्णो धूयातो खलु, न माउछंदा उ ताउ दिज्जंति। लोइय-लोगुत्तरिओ, लोगुत्तर ठप्पितर वोच्छं। न य पुत्तो अभिसिच्चति, तासिं छंदेण एवम्हं।। (निरपेक्ष राजा वह होता है जो राज्य और प्रजा के भविष्य राजा की पुत्रियां माताओं-रानियों की इच्छा से नहीं दी की अपेक्षा नहीं रखता।) उसके कालगत हो जाने पर, दूसरे को जातीं और न उनकी इच्छा से पुत्र का राज्याभिषेक किया जाता राजा के रूप में स्थापित न करने तक उसे प्रच्छन्न रखना होता है। यह सब राजा की इच्छा से किया जाता है। (इसलिए ये हमारे है। कभी चोर को भी राजा बनाना होता है। उसका निक्षेपण दो है-ऐसा संयतसत्क वाले कहते हैं।) प्रकार का होता है-स्वयं का तथा दूसरे का। इन दोनों में प्रत्येक १८८९. एमादि उत्तरोत्तर, दिटुंता बहुविधा न उ पमाणं। के दो-दो प्रकार हैं-लौकिक और लोकोत्तरिक। लोकोत्तरिक पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होति पमाणं पवयणम्मि॥ स्थाप्य है। उसके विषय में आगे बताऊंगा। इस प्रकार उत्तरोत्तर अनेक प्रकार के दिए जाने वाले दृष्टांत प्रमाण नहीं होते। प्रवचन में (जैन शासन में) पुरुषोत्तरिक धर्म ही १८९५. निरवेक्खे कालगते,भिन्नरहस्सा तिगिच्छऽमच्चोय। प्रमाण है। (इसलिए सारे अपत्य पुरुषसत्क को ही मिलते हैं।) अहिवास आस हिंडण, वज्झो त्ति य मूलदेवो उ।। १८९०. आयरियउवज्झायम्मि, निरपेक्ष राजा कालगत हो गया। दो व्यक्ति भिन्नरहस्य अधिकिते अधिकिते य कालम्मि। थे-इस तथ्य को जानते थे। वे थे-चिकित्सक और अमात्य। निस्सोवसंपय त्ति य, राजा की खोज के लिए एक अश्व को अधिवासित कर गांव में एगढमयं तु संबंधो। घुमाया। चोर मूलदेव वध्य था। उसे ले जाया जा रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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