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________________ चौथा उद्देशक १७९ है।) हैं। १८७२. संविग्गमुद्दिसंते, पडिसेहं तस्स संथरे गुरुगा। उसको जहां लगे वहां वह जा सकता है।) किं अम्हं तु परेणं, अधिकरणं जं तु तं तेसिं॥ १८७७. अधवा अण्णऽण्णकुला, जो अपने आत्मीय गुरु को संविग्न रूप में प्रकाशित करता पडिभज्जिउकाम समण समणी य। है और दूसरे के पास प्रवजित होना चाहता है तो प्रव्रज्या देने अणुसिठ्ठा परे न ठिता, वाला वह आचार्य कहता है-हमें दूसरे से क्या प्रयोजन। जो करेंति वायंतववहारं॥ जिसका अधिकरण है वह उसी का हो, इस प्रकार प्रतिषेध करने अथवा अन्यान्यकुल में उत्पन्न श्रमण-श्रमणी अपनेपर उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह संस्तरण (?) अपने गच्छ से विलग होने के इच्छुक हो गए। उन्हें अनुशिष्टि देने होने पर प्रायश्चित्त है। पर भी वे स्थिर नहीं हुए और वे वागन्तिक व्यवहार करते हैं। १८७३. एवं खलु संविग्गेऽसंविग्गे वारणा न उद्दिसणा। (वाणी से यह निश्चय कर लेते हैं कि हम विवाह में बद्ध होंगे। अब्भुवगत जं भणती, पच्छ भणंते न से इच्छा। हमारे जो संतानें होंगी और जब हम पुनः प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे तब अपने गुरु को संविग्न बताने के विषय में पूर्व श्लोक में कहा पुरुष संतान होगी वह मेरी और जो स्त्री संतान होगी वह तुम्हारी गया। जो अपने गुरु को असंविग्न बतलाता है उसका प्रतिषेध अथवा दोनों मेरी अथवा तुम्हारी। वे ही उनकी आभाव्य होती करना चाहिए और उसे प्रव्रज्या नहीं देनी चाहिए। यदि वह कहे-मैं पूर्वाचार्य को संविग्न अथवा असंविग्न नहीं कहता किंतु १८७८. अध न कतो तो पच्छा तेसिं अब्भुट्ठिताण ववहारो। अब जिसको स्वीकार कर रहा है उसके प्रति कहता हूं-आप ही गोणी आसुब्मामिग, कुडुबि खरए य खरिया य॥ मेरे आचार्य हैं, तो उसे प्रव्रज्या दे देनी चाहिए। प्रवजित होने के यदि उन्होंने वागन्तिक व्यवहार नहीं किया हो और वे पश्चात् यदि वह कहे-मैं पूर्वाचार्य का हूं, आपका नहीं। उसकी प्रव्रज्या के लिए उपस्थित होते हैं तो व्यवहार-भंडन होता है। इच्दा के अनुसार वैसा नहीं होता। वह वर्तमान में प्रव्रज्या इसमें गाय, अश्व, उद्भ्रामिका, कौटुम्बिक, खरखरिका दृष्टांत देनेवाले का ही है। १८७४. एमेव निच्छिऊणं, उद्विंतो पच्छ तेसिमाउट्टो। १८७९. गोणीणं संगेल्लं, उब्भामइला य नीत परदेसं। इतरेहि व रोसवितो, सच्छंद दिसं पुणो न लभे।। तत्तो खेत्ते देवी, रण्णो अभिसेचणे चेव।। उपरोक्त रूप से निश्चय कर प्रवजित होने पर भी जो बाद गायों का समूह, उद्भ्रामिका को परदेश ले जाना, क्षेत्र में में पूर्वाचार्य के प्रति आवृत्त हो जाता है अथवा दूसरों द्वारा रुष्ट बीज, राजा की रानी का अभिसेचन आदि। होकर कहता है-मैं पूर्वाचार्य का ही हूं, आपका नहीं, वह स्वच्छंद १८८०. संजइइत्त भणंती, संडेणऽण्णस्स जं तु गोणीए। दिशा को प्राप्त नहीं करता अर्थात् वह पूर्वाचार्य का नहीं होता। जायति तं गोणिवतिस्स होति एवम्ह एताई ॥ १८७५. अण्णाते परियाए, श्रमणी के समानकुल वाले कहते हैं-अन्य व्यक्ति के सांड पुण्णे न कधेज्ज जो समुटुंतो। से गायों के जो अपत्य होते हैं वे सब गोपति-गायों के स्वामी के लज्जाय मा व घेच्छिति, होते हैं, न कि सांड के स्वामी के। (इसी प्रकार ये अपत्य श्रमणी मा व न दिक्खेज्जिमा भयणा॥ से संबंधित होंगे।) अज्ञात रहकर वह पर्याय के पूर्ण हो जाने पर भी पुनः १८८१. बेंतितरे अम्हं तू, जध वडवाए उ अण्णआसेणं। प्रव्रज्या के लिए उपस्थित होकर लज्जावश अथवा मुझे कोई जं जायति मोल्लम्मी, अदिण्ण तं आसिगस्सेव॥ ग्रहण न कर ले अथवा मुझे पश्चात्कृत जानकर दीक्षित न श्रमण के समानकुल वाले कहते हैं-ये अपत्य हमारे होंगे करे-इन भजना-विकल्पों से वह अपने आपको प्रगट नहीं जैसे बिना मूल्य दिए अन्य व्यक्ति के अश्व से वडवा-घोड़ी से करता। होने वाले अपत्य अश्वस्वामी के होंगे। (इसी प्रकार ये अपत्य १८७६. णाते व जस्स भावो, न नज्जते तस्स दिज्जते लिंगं। श्रमण संबंधी होंगे। दिण्णम्मि दिसिं नाहिति, कालेण व सो सुणंतो वा॥ १८८२. जस्स महिलाय जायति, उब्भामइलाय तस्स तं होति। यदि पश्चात्कृत के रूप में वह ज्ञात हो जाता है, किंतु संजतिइत्त भणंती, इतरे बेंती इमं सुणसु।। उसके भावों की जानकारी नहीं होती, फिर भी उसे लिंग दिया जा श्रमणी के समानकुल वाले कहते है-जिस कुलटा स्त्री से सकता है। उसको लिंग दे देने पर उसकी दिशा (पूर्वाचार्य) काल जो अपत्य होता है वह उसका होता है। दूसरे कहते हैं-तुम यह के बीतने पर अथवा परंपरा से सुनकर जान ली जाएगी। (फिर सुनो। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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