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तो पूर्वोक्त विकल्प ही जानना चाहिए। १८६१. साधारणो अभिहितो, इयाणि पच्छाकडं तु वोच्छामि । सो दुविधो बोधव्वो, गिहत्थ सारूविओ चेव ॥ साधारण के विषय में बताया जा चुका है। अब पश्चात्कृत के विषय में बताऊंगा। पश्चात्कृत के दो प्रकार हैं- गृहस्थ और सारूपिक ।
१८६२. असिहो ससिहगिहत्थो, रयहरवज्जो उ होति सारूवी। धारेति निसिज्जं तू, एगं ओलंबगं चेव ॥ गृहस्थ दो प्रकार का होता है-सशिख-शिखायुक्त और अशिख-शिखारहित । (जो केशों को धारण करता है वह शिखायुक्त होता है और जो मुंड होता है वह शिखारहित होता है ।) जो रजोहरण से रहित होता है वह अशिखा है । सारूपिक एक निषद्या, एक निषद्योपेत रजोहरण तथा एक अवलंबक-दंड रखता है।
१८६३. गिहिलिंगं पडिवज्जति, जो ऊ तद्दिवसमेव जो तं तु ।
उवसामेती अण्णो, तस्सेव ततो पुरा आसी ॥ जो श्रामण्य को छोड़ गृहिलिंग को स्वीकार कर लेता है और उसी दिन दूसरे से उपशांत होकर पुनः व्रतग्रहणाभिमुख होता है तो जिसने उपशांत किया है उसी का वह आभाव्य होता है, मूल आचार्य का नहीं। यह विधि पहले प्रचलित थी । (लिंग का परित्याग कर देने पर तीन वर्षों के बीतने पर आभवन पर्याय परिपूर्ण होता है, पहले नहीं। यह मर्यादा किसने की ?) १८६४. एहिं पुण जीवाणं, उक्कडकलुसत्तणं वियाणेत्ता ।
तो भद्दबाहुणा ऊ, तेवरिसा ठाविता ठवणा ॥ आजकल के प्राणियों की उत्कट कलुषता को जानकर आचार्य भ्रबाहु ने (आचार्यत्व ग्रहण की) त्रैवार्षिकी मर्यादा की। १८६५. परलिंग निण्हवे वा, सम्मद्दंसण जढे तु संकंते ।
तद्दिवसमेव इच्छा, सम्मत्त जुए समा तिण्णि ॥ परलिंग दो प्रकार का होता है-गृहिलिंग और परतीर्थिकलिंग | वह भग्नचारित्री सम्यग्दर्शन से विकल व्यक्ति परतीर्थिकलिंग अथवा निह्नवों के मध्य चला जाता है और उसी दिन जिसके पास प्रव्रजित होना चाहता है वह उसी का आभाव्य होता है और यदि सम्यक्त्वयुक्त होकर परलिंग आदि में जाता है तो तीन वर्ष पूर्ण होने पर ही उसकी पूर्व पर्याय टूटती है। १८६६. एमेव देसियम्मि वि, सभासितेणं तु समणुसिट्ठम्मि ।
ओसणेसु वि एवं अच्चाइण्णे न पुण एहिं ॥ इसी प्रकार उत्प्रव्रजित किसी देशिक व्यक्ति को समानभाषा वाला व्यक्ति अनुशिष्टि देता है तो अनुशिष्टि देने वाले का वह आभाव्य होता है। अवसन्न व्यक्ति के लिए भी यही विधि है । १. समानं रूपं सरूपं, तेन चरतीति सारूपिकः ।
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सानुवाद व्यवहारभाष्य जो कषायों से अत्याकीर्ण है, उसके लिए यह व्यवस्था नहीं है। उसके लिए तीन वर्षों का काल है।
१८६७. सारूवी जज्जीवं, पुव्वयरियस्स जे य पव्वावे । अपव्वविय सच्छंदो, इच्छाए जस्स सो देति ॥ सारूपिक यावज्जीवन के लिए पूर्वाचार्य का आभाव्य होता है । वह जितने व्यक्तियों को प्रव्रजित करता है वे भी पूर्वाचार्य के आभाव्य होते हैं। जिनको उसने प्रव्रजित नहीं किया है उनके लिए उसकी आत्मेच्छा है। जिसको वह इच्छा से उन्हें देता है, उनके वे आभाव्य होते हैं।
१८६८. जो पुणे गिहत्थमुंडो, अधवा मुंडो उ तिण्ह वरिसाणं । आरेणं पव्वावे, सयं च पुव्वायरिय सव्वं ॥ जो गृहस्थमुंड (क्षुरमुंड) हैं अथवा मुंड हैं (लोचद्वारा) ये दोनों प्रकार के मुंड सारूपिक से भिन्न हैं, अतः तीन वर्षों से पूर्व जिनको प्रव्रजित करता है वे तथा स्वयं तीन वर्षों के पूर्ण होने तक पूर्वाचार्य के आभाव्य होते हैं।
१८६९. अपव्ववित सच्छंदा, तिण्हं उवरिं तु जाणि पव्वावे ।
अपव्वविताणि जाणि य, सो वि य जस्सिच्छते तस्स ॥ जिनको तीन वर्षों से पूर्व प्रव्रजित नहीं किया उनको अपनी इच्छा से जिनको देता है, वे उनके आभाव्य होते है। तीन वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् जितने व्यक्तियों को प्रव्रजित करता है अथवा अप्रव्रजित हैं वे सब तथा स्वयं भी अपनी इच्छा से जिसके पास प्रव्रजित होना चाहता है उसके पास प्रव्रजित होता है। १८७०. गंतूणं जदि बेती, अहयं तुज्झं इमाणि अन्नस्स ।
एयाणि तुज्झ नाहं, दो वी तुज्झं दुवेण्हस्स ॥ तीन वर्ष की मर्यादा पूर्ण होने पर वह पूर्वाचार्य के पास जाकर यदि कहता है-मैं आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूं। ये जो मेरे द्वारा प्रव्रजित हैं ये किसी दूसरे आचार्य के पास प्रव्रजित होना चाहते हैं । अथवा ये आपके पास और मैं दूसरे आचार्य के पास, अथवा दोनों आपके पास अथवा दोनों दूसरे आचार्य के
पास।
१८७१. छिण्णम्मि उ परियाए, उवट्ठियंते हु पुच्छिउं विहिणा । तस्सेव अणुमतेणं, पुव्वदिसा पच्छिमा वावि ॥ तब आचार्य तीन वर्ष काल को अतिक्रांत जानकर उसको उपसंपन्न करते हैं तथा उसको पूछकर विधि से दूसरों को भी उपस्थापना देते हैं। उसकी अनुमति अर्थात् इच्छा से उनको पूर्व दिशा अथवा पश्चिम दिशा देते हैं अर्थात् यदि वे पूर्वाचार्य को चाहते हैं तो उनके पास और अन्य आचार्य को चाहते हैं तो उनके पास उपस्थापना दिलाई जाती है। (उपस्थापना के विषय में उनकी इच्छा ही प्रमाण होती है ।)
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