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________________ चौथा उद्देशक १८१ १८९६. आसस्स पट्टिदाणं, आणयणं हत्थचालणं रण्णो। १९०२. सेट्ठिस्स तस्स धूता,वणियसुतं घेत्तु रण्णो समुवगता। अभिसेग भोइ परिभव, तण-जक्ख निवायणं आणा। अहयं एस सही मे, पालेयव्वा उ तुब्भेहिं। उस अश्व ने मूलदेव को पीठ दी (पीठ पर बिठा लिया)। १९०३. इति होउ त्ति य भणिउं, कण्णा अंतेउरम्मि तुट्ठणं। मूलदेव को वहां लाया गया जहां राजा मृत पड़ा था। वहां बैठे हुए रणा पक्खित्ताओ, भणिता वाहरिउ पाला उ॥ वैद्य और अमात्य ने मृत राजा के हाथ को ऊपर उठाकर हिलाया १९०४. जध रक्खह मज्झ सुता, तहेव एया उ दोवि पालेह। और मूलदेव को राजा के रूप में अभिषिक्त कर दिया। मूलदेव तीए वि ते उ पाले, विण्णविय विणीतकरणाए। राजा बन गया। कुछ भोजिक उसका पराभव करने लगे। एक दिन १९०५. जध कन्ना एयातो, रक्खह एमेह रक्खह ममं पि। राजा मुकुट में तृणशूक लगाकर आस्थान मंडप में आया। लोग जह चेव ममं रक्खह, तह रक्खहिमं सहिं मज्झ॥ उपहास करने लगे। यक्ष देव ने उन उपहासकर्ताओं का विनाश १९०६. इय होउ अब्भुवगते, अह तासिं तत्थ संवसंतीणं । कर डाला। तदनंतर शेष सभी उसकी आज्ञा स्वीकारने लगे। कालगतमहत्तरिया, जा कुणती रक्खणं तासिं॥ १८९७. जक्खऽतिवातियसेसा, सरणगता जेहि तोसितो पुव्वं। १९०७. सविकारातो द8, सेट्ठिसुया विण्णवेति रायाणं। ते कुव्वंती रणो, अत्ताण परे य निक्खेवं॥ महतरित दाणनिग्गह, वणियागम रायविण्णवणं॥ यक्षातिपात से जो बचे थे वे मूलदेव की शरण में आ गए १९०८. पूएऊण विसज्जण,सरिसकुलदाण उ दोण्ह वी भोगो। तथा जिन्होंने पहले मूलदेव को संतुष्ट किया था उन्होंने स्वयं को एमेव उत्तरम्मि वि, अवत्तराइंदिए हुवमा।। तथा दूसरों को राजा के सुपुर्द कर लिया, सभी समर्पित हो गए। एक कोई वणिक् अपनी एकाकी पुत्री को अपने मित्र श्रेष्ठी के १८९८. पुव्वं आयतिबंधं, करेति सावेक्ख गणधरे ठविते। हाथों सौंपकर दिग्यात्रा (परदेश) चला गया। कालांतर में वह अट्ठविते पुव्वत्ता, दोसा उ अणाहमादीया। मित्रश्रेष्ठी भी कालगत हो गया। उसके घर में भी एक ही पुत्री थी। सापेक्ष आचार्य पहले ही गणधर को स्थापित कर मूल वणिक् की पुत्री अपनी सखी मित्र श्रेष्ठी की पुत्री को लेकर आयतिबंध कर लेता है-शिष्यों को कह देता है-यह आचार्य है। राजा के पास उपस्थित होकर बोली-राजन् ! आपको मेरी और अब इसकी आज्ञा में चलना है। जो आचार्य गणधर की पहले। मेरी इस सखी का पालन-संरक्षण करना है। राजा ने कहा-ठीक स्थापना नहीं करता, उससे पूर्वोक्त दोष-अनाथ आदि का आरोप है, ऐसा ही करूंगा। संतुष्ट होकर राजा ने उन दोनों कन्याओं को आता है। अंतःपुर में रख दिया और अंतःपुरपालिका को बुलाकर १८९९. आसुक्कारोवरते, अट्ठविते गणहरे इमा मेरा। कहा जैसे तुम मेरी कन्याओं का संरक्षण कर रही हो, वैसे ही इन चिलिमिलि हत्थाणुण्णा, परिभव सुत्तत्थहावणया॥ दोनों कन्याओं का भी संरक्षण करना। राजाज्ञा को सुनकर अपने गणधर स्थापित किए बिना कोई आचार्य शीघ्रघाती महत्तरिका ने विनयपूर्वक कहा-देव! मैं इनका भी पूरा पालन रोग से कालगत हो जाता है तो उस स्थिति में यह मर्यादा करूंगी। तब मूल वणिक् की पुत्री ने अंतःपुरपालिका से है-चिलिमिलि-यवनिका के अंदर कालगत आचार्य का हाथ कहा-जैसे तुम इन राजकन्याओं का संरक्षण करती हो वैसे ही ऊपर कर स्थाप्यमान गणधर का मुख दिखाते हैं। जो उस । मेरा संरक्षण करना। जैसे मेरा संरक्षण करेंगी वैसे ही मेरी इस अभिनव स्थापित आचार्य का परिभव करते हैं, उन्हें सूत्र और सखी का भी संरक्षण करना। अंतःपुरपालिका के स्वीकार कर अर्थ की वाचना नहीं दी जाती। उनके वह हानि होती है। लेने पर वे दोनों अंतःपुर में चली गईं। उनको वहां रहते कुछ १९००. दंडेण उ अणुसट्ठा, लोए लोगुत्तरे य अप्पाणं । काल बीता। जो महत्तरिका उनका संरक्षण करती थी वह कालगत उवनिक्खिवंति सो पुण, लोइय लोगुत्तरे दुविहो॥ हो गई। कोई संरक्षिका न होने के कारण कन्याएं पथभ्रष्ट होने लौकिक और लोकोत्तरिक प्रसंग में यथार्थ विनय न करने लगीं। यह देखकर मूल वणिक्-पुत्री ने राजा को निवेदन किया पर दंड से अनुशासित होते हैं और तब वे स्वयं का कि अन्य महत्तरिका की नियुक्ति करें। दूसरी महत्तरिका की उपनिक्षेप-समर्पण करते हैं। उपनिक्षेपण दो प्रकार का होता। नियुक्ति हो गई। उसने कन्याओं का निग्रह किया। सब ठीक हो है-लौकिक और लोकोत्तरिक। ये दोनों दो-दो प्रकार के होते गया। देशांतर से वणिक् लौट आया। उसने राजा से निवेदन है-आत्मोपनिक्षेप तथा परोपनिक्षेप। किया-देव! मैं पुत्री को घर ले जाना चाहता हूं। राजा ने दोनों १९०१. जह कोई वणिगो तू, धूयं सेट्ठिस्स हत्थे निक्खिविउं। कन्याओं को ससत्कार विसर्जित कर घर भेज दिया। सेठ ने दोनों दिसिजत्ताए गतो त्ति, कालगतो सो य सेट्ठीओ॥ कन्याओं का समानकुल में संबंध कर विवाह कर डाला और दोनों १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य कथा परिशिष्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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