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________________ २३८ भोजन न करने पर उस क्षपक को महान् उत्तापना होती है, अंतराय होता है। ये अभोजन के दोष हैं। भोजन करने पर अविनय आदि दोष होते हैं। २५३६. गिलाणस्सोसधादी तु, न देंति गुरुणो विणा । ऊणाहियं च देज्जाही, तस्स वेलाऽतिगच्छति ॥ गुरु के बिना साधु ग्लान को औषध आदि नहीं देते। अथवा वे न्यून या अधिक औषध दे देते हैं । ग्लान की औषध - वेला अतिक्रांत हो जाती है। २५३७. पाहुणगा गंतुमणा, वंदिय जो तेसि उण्हसंतावो । पाणगे पडिच्छंते, सिद्धे वा अंतरायं तु ॥ जो प्राघूर्णक मुनि जाना चाहते हैं वे यदि आचार्य को वंदना किए बिना जाते हैं तो अविनय आदि दोष होते हैं। और आचार्य की प्रतीक्षा करते हैं तो विलंब से जाने पर उष्णसंताप से पीड़ित होते हैं। यह संताप भी आचार्य के कारण होता है। कुछेक श्रावक पर्व दिनों में उपवास आदि करते हैं। वंदना आदि के लिए आचार्य की प्रतीक्षा करने पर उनके पारणे में अंतराय आता है। २५३८. जम्हा एते दोसा, तम्हा गुरुणा न चिट्ठियव्वं तु । भिक्खूण चिट्ठियव्वं, तस्स न किं दोस होंतेते ॥ जिन कारणों से ये दोष होते हैं उन कारणों को ध्यान में रखकर आचार्य को वसति के बाहर नहीं रहना चाहिए, भिक्षु चाहे लंबे समय तक भी बाहर रहे। शिष्य पूछता है-क्या भिक्षु के ये दोष नहीं होते ? २५३९. अणेग बहुनिग्गमणे, अब्भुट्ठण भाविता य हिंडता । दसविधवेयावच्चे, सग्गाम बहिं च वायामो ॥ २५४०. सीउण्हसहा भिक्खू, न य हाणी वायणादिया तेसिं । गुरुणो पुण ते नत्थी, तेण पमज्जंति खेयण्णो ॥ आचार्य कहते हैं - भिक्षु को अनेक कारणों से बहुतवार निर्गमन करना पड़ता है। उसे स्वग्राम अथवा परग्राम में दसविध वृत्य करने जाना पड़ता है। आचार्य के लिए अभ्युत्थान आदि करने तथा भिक्षा के लिए घूमने से उसका शरीरं भावित हो जाता है, शरीर व्यायामित हो जाता है। भिक्षु शीतोष्ण को सहने वाले होते हैं। उनके वाचना आदि की हानि नहीं होती। गुरु के बारबार निर्गमन आदि नहीं होते। इसलिए वे वसति के अंदर जाकर खेदज्ञ - कुशल मुनि से पादप्रमार्जन करवाते हैं। २५४१. ध्रुवकम्मियं च नाउं, कज्जेणऽण्णेण वा अणतिवातिं । अव्वक्खित्ताउत्तं, न उ दिक्खति बाहि भिक्खू वि ॥ वसति के बाहर ध्रुवकर्मिक (लोहकार आदि) सागारिक अथवा अन्य कार्य में व्यापृत अन्य सागारिक को अनतिपातीवहां से न जाते हुए जानकर तथा अव्याक्षिप्त और आयुक्त जानकर भिक्षु बाहर प्रतीक्षा न करे, वसति के भीतर जाकर यतनापूर्वक पादप्रमार्जन करे। Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य २५४२ बहिगमणे चउगुरुगा, आणादी वाणिए य मिच्छत्तं । पडियरणमणाभोगे, खरिमुह मरुए तिरिक्खादी ॥ आचार्य यदि विचारभूमी के लिए बाहर जाते हैं तो प्रायश्चित्त है चार गुरुमास का तथा आज्ञा आदि दोष होते हैं। वणिकों द्वारा मिथ्यात्वप्राप्ति, प्रतिचरण, अनाभोग, खटिकामुखी, मसक, तिर्यंच आदि - ( इनकी व्याख्या आगे की गाथाओं में ।) २५४३. सुतवं तम्मि परिवारवं चा वणियंतरावणुट्ठाणे । उट्ठाण निग्गमम्मि य, हाणी य परं मुहावण्णा ।। विचारभूमी (संज्ञाभूमी) में जाते-आते आचार्य को देखकर कुछेक वणिक् अपनी दुकानों में अभ्युत्थान करते हुए सोचते हैं कि ये आचार्य श्रुतवान हैं, परिवारसंयुक्त हैं। दो बार संज्ञाभूमी में निर्मन करने पर वे वणिक् अभ्युत्थान की हानि करते हैं। 'हमें उठना पड़ेगा' - यह सोचकर आचार्य को देखकर भी पराङ्मुख हो जाते है। अथवा अवर्णवाद बोलने लग जाते हैं। २५४४. गुणवं तु जतो वणिया, पूजतेऽण्णे वि सन्नता तम्मि । पडितो त्ति अणुट्ठाणे, दुविधनियत्ती अभिमुहाणं ॥ कुछेक लोग सोचते हैं-आचार्य गुणवान् हैं इसलिए वणिक् लोग इनकी पूजा करते हैं। यह सोचकर वे तथा अन्य व्यक्ति भी उनके प्रति नत हो जाते हैं। आचार्य द्वारा दो बार संज्ञाभूमी में जाने पर वणिकों का अनुत्थान देखकर वे सोचते हैं-ये आचार्य पतित हो गए हैं, इनकी श्रद्धा से गिर गए हैं। जो लोग आचार्य अभिमुख हुए थे उनकी दो प्रकार की निवृत्ति हो जाती है-जो उनके पास श्रावकत्व ग्रहण करने वाले थे तथा जो प्रवज्या लेने के इच्छुक थे—वे इन दोनों से निवृत्त हो जाते हैं। २५४५. आउट्टो त्ति व लोगे, पडियरितुच्छन्न मारए मरुगो । खरियमुहसंगं वा, लोभेउ तिरिक्खसंगहणं ॥ आचार्य के प्रति सभी लोग आवृत हो गए प्रणत हो गए, यह देखकर एक ब्राह्मण मत्सरभाव से प्रेरित होकर आचार्य की सेवा (परिचर्या) करने लगा। जब आचार्य संज्ञाभूमी में गए तब प्रच्छन्न प्रदेश में आचार्य को मारकर वहीं गढे आदि में डाल दिया । अथवा खरमुखी - दासी या नपुसंक को प्रलोभन देकर आचार्य पर मैथुन सेवन का कलंक लगाकर उड्डाह करवा दिया। अथवा आचार्य एकांत स्थान में संज्ञा व्युत्सर्ग के लिए गए। वहां कुछेक प्रत्यनीक व्यक्ति तिर्यंची आदि पशु को प्रविष्ट करवाकर आचार्य पर मैथुन का कलंक लगवा दिया। २५४६. आदिग्गहणा उब्भामिगा व तह अन्नतित्थिगा वावि । अधवा वि अण्णदोसा, हवंतिमे वादिमादीया || ( गाथा २५४२) में 'तिरिक्खादि' शब्द है। आदि से वहां उद्भ्रामिका-कुलटा तथा अन्यतीर्थिकी का ग्रहण किया गया है। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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