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छठा उद्देशक
२३९ अथवा अन्य दोष भी होते हैं। वे हैं वादी आदि से संबंधित दोष। कथन। विनयपूर्वक (इस श्लोकार्थ की व्याख्या आगे)। २५४७. वादी दंडियमादी, सुत्तत्थाणं व गच्छपरिहाणी। २५५३. निद्धाहारो वि अहं, असई उद्वेमि णो स कधयंतो। आवस्सगदिटुंतो, कुमार करतेऽकरेंते य॥
पासगतो मण्णे मत्तं वत्थंतरिय पणामेति ।। (यह द्वार गाथा है) वादी, दंडिक आदि, सूत्रार्थों की तथा राजकुमार धर्मकथा सुनते-सुनते बीच में अनेक बार गच्छ की परिहानि, आवश्यक (उच्चारावश्यक) करते हुए या न कायिकी करने के लिए उठता रहा। उसने सोचा-मेरा आहार करते हुए कुमार का दृष्टांत । (व्याख्या आगे)
स्निग्ध है, फिर भी मैं कायिकी व्युत्सर्जन के लिए बार-बार उठता २५४८. सन्नागतो त्ति सिढे, भयातिसारो त्ति बेति परवादी। हूं। कथा कहते हुए आचार्य नहीं उठते। संभव है पास में स्थित
मा होहिति रिसिवज्झा, वच्चामि अलं विवादेणं॥ साधु आचार्य को वस्त्रान्तरित मात्रक समर्पित करता है। (यदि में एक प्रवादी ने वसति में आकर पूछा-आचार्य कहां हैं? यह बात पूछता हूं तो अविनय होगा, अतः कुछ उपाय से शिष्य ने कहा-वे संज्ञाभूमी में गए हैं। परवादी कहता है-अच्छा, पूछेगा।) मेरे भय से अतिसार हो गया है। इनकी हत्या न हो जाए-ये मर २५५४. विणओ उत्तरिओ त्ति य,बलिओ गंगा कतोमुही वहति । न जाए, हो चुका वाद-विवाद, यह सोच वह चला गया।
पुव्वमुही अचलंतो, भणति निवं आगितिजुतो वि। २५४९. चंदगवेज्झसरिसगं, आगमणं राय इड्डिमंताणं। राजा ने आचार्य से पूछा-लौकिक विनय बलवान होता है
पव्वज्ज साव भद्दग, इच्चादिगुणाण परिहाणी ॥ अथवा लोकोत्तरिक विनय ? आचार्य ने कहा-लोकोत्तरिक
पुत्तलिका की आंख के चंद्रक को वींधने वाले के सदृश । विनय। परीक्षा के लिए राजा ने अपने अत्यंत विश्वस्त ऋद्धिवाले राजाओं का आचार्य के पास आगमन होता है। आकृतिमान् व्यक्ति को भेजते हुए कहा-गंगा किस ओर बहती आचार्य को संज्ञाभूमी में गए जानकर वे लौट जाते हैं। यदि है, इसको जानकर बताओ। वह वहां से न जाकर-वहीं पर स्थित आचार्य स्थान पर होते तो प्रव्रज्या या श्रावकत्व ग्रहण कर सकते रहकर राजा को उसने कहा-गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है। थे। अथवा वे भद्रक हो सकते थे। आचार्य के बाहर जाने पर इन २५५५. रण्णा पदंसितो एस, वयउ अविणीयदसणो समणो। गुणों की परिहानि होती है।
पच्चागयउस्सग्गं, काउं आलोयए गुरुणो।। २५५०. सुत्तत्थे परिहाणी, वीयारं गंतु जा पुणो एति। ___आचार्य ने राजा से कहा-तुम मेरे शिष्य के सामने भी यही
तत्थेव य वोसिरणे, सुत्तत्थेसुं न सीदति॥ प्रश्न रखो और जिस शिष्य को तुम चाहो उसे इसकी जानकारी विचारभूमी में जाकर पुनः लौट आने तक सूत्रार्थ की करने भेजो। तब राजा ने जो अविनीत दर्शन वाला श्रमण था उस परिहानि होती है। उपाश्रय में ही संज्ञा का व्युत्सर्जन करने पर। ओर इशारा किया। आचार्य ने उसे आदेश देते हुए कहा-जाओ, सूत्रार्थ के लिए साधु विषादग्रस्त नहीं होते।
यह देखकर आओ कि गंगा किस ओर बहती है। वह गया। २५५१. तीरगते ववहारे, खीरादी होति तदिह उट्ठाणे। लौटकर आकर उसने कायोत्सर्ग करके आलोचना की।
कोसस्स हाणि परचमुपेल्लण रज्जस्स अपसत्थे॥ २५५६. आदिच्च दिसालोयण, तरंगतणमादिया य पुव्वमुही। न्यायाधिकारी यदि अपने स्थान से उठकर संज्ञा
मा होज्ज दिसामोहो, पुट्ठो वि जणो तहेवाह। निवारणार्थ जाता है तो व्यवहार तीर पर आ गया था अथवा भंते ! मैं गंगातट पर गया। आदित्य से दिगविभाग का समाप्ति के निकट था, यह व्यवहार क्षीरगत हो जाता है अर्थात् निर्धारण किया। तरंगों में गिरे हुए तृण पूर्वाभिमुखी बह रहे थे। जैसे दूध में पानी मिलता है उसी प्रकार वादी-प्रतिवादी समझौता मुझे दिशामोह न हो, इसलिए मैंने लोगों से पूछा। लोगों ने भी कर लेते हैं। इससे कोश की हानि होती है। कोश की हानि वही कहा। मैंने निश्चय कर डाला कि गंगा पूर्वाभिमुखी बहती है। जानकर शत्रुसेना द्वारा राज्य का संग्रहण कर लिया जाता है। यह २५५७. वध-बंध--छेद-मारण, अप्रशस्त दृष्टांत है।
निव्विसिय धणावहार लोगम्मि। २५५२. वेलं सुत्तत्थाणं, न भंजते दंडियादिकधणं वा।
भवदंडो उत्तरिओ, पच्छण्णो भयकोसे, पुच्छा पुण साहणा विणए।
उच्छहमाणस्स तो बलिओ॥ यदि आचार्य संज्ञा व्युत्सर्जन उपाश्रय के अंदर ही करते हैं राजा ने कहा-लोक में जो हमारी आज्ञा का भंग करता है, तो सूत्रार्थ की वेला का भंग नहीं होता तथा समागत दंडिक आदि उसको वध, बंधन, छेदन, मारण, देश से निकाल देना, के धर्मकथा में व्याघात भी नहीं होता। प्रस्रवण के निमित्त आचार्य धनापहार आदि से दंडित किया जाता है। आचार्य ने कहा-ये दंड
को प्रच्छन्नरूप से मात्रक देते हैं, राजा द्वारा पृच्छक। आचार्य का लोकोत्तरिक अपराध में नहीं हैं किंतु लोकोत्तर में भवदंड का भय Jain Education International For Private & Personal Use Only
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