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सानुवाद व्यवहारभाष्य ११०७. वड्डति हायति उभयं, अवट्ठियं च चरणं भवे चउधा। १११३. चेतणमचेतणं वा, परतंतत्तेण दो वि तुल्लाइं। खइयं तहोवसमियं, मीसमहक्खाय खित्तं च॥
न तया विसेसितं एत्थ, किंचि भणती सुण विसेसं॥ चार भंग ये हैं
आचार्य ने कहा-चेतन हो या अचेतन, परतंत्रता में दोनों १. चारित्र की वृद्धि होती है, हानि नहीं होती।
तुल्य हैं। शिष्य ने पूछा-आपने यहां दोनों में कुछ भी विशेष नहीं २. चारित्र की हानि होती है, वृद्धि नहीं होती।
बताया। आचार्य ने कहा-मैं कुछ विशेष बताता हूं, वह सुनो। ३. चारित्र की वृद्धि-हानि-दोनों होती हैं।
१११४. नणु सो चेव विसेसो, जं एगमचेतणं सचित्तेगं। ४. चारित्र अवस्थित रहता है।
जध चेतणे विसेसो, तह भणसु इमं णिसामेह ।। क्षायिक चारित्र की वृद्धि होती है, औपशमिक चारित्र की एक अचेतन है और सचेतन है-यही विशेष है। (जो सचेतन हानि होती है। क्षायोपशिमक चारित्र की वृद्धि-हानि-दोनों होती। होकर भी परतंत्रता से क्रिया करता है, वह अचेतन ही है) शिष्य हैं। यथाख्यात चारित्र अवस्थित रहता है। उसी प्रकार क्षिप्तचित्त
बोला--भंते! आप ऐसा कहें कि चेतन में कर्मबंध की विशेषता का चारित्र अवस्थित होता है। इसका कारण है राग-द्वेष का
होती है। आचार्य बोले-तुम यह सुनो। अभाव । इसलिए वह प्रायश्चित्तभाक् नहीं होता।
१११५. जो पेल्लितो परेणं हेऊ, वसणस्स होति कायाणं। ११०८. कामं आसवदारेसु, वट्टितो पलवित बहुविधं च।
तत्थ न दोसं इच्छसि, लोगेण समं तहा तं च। लोगविरुद्धा य पदा, लोगुत्तरिया य आइण्णा॥
जो दूसरों द्वारा प्रेरित होकर षड्जीवनिकायों के व्यसन११०९. न य बंधहेतुविगलत्तणेण कम्मस्स उवचओ होति।
संघट्टन, परितापन आदि का हेतु बनता है उसमें तुम दोष नहीं लोगो वि एत्थ सक्खी, जह एस परव्वसो कासी॥
देखते। क्योंकि लोगों में यही देखा जाता है। जैसे वह निर्दोष यह अनुमत है कि क्षिप्तचित्त मुनि आश्रवद्वारों में प्रवर्तित
होता है, वैसे ही वह क्षिप्तचित्त भी निर्दोष है। हुआ है। उसने बहुविध प्रलाप किए हैं। उसने लोकविरुद्ध और
१११६. पासंतो वि य काये, अपच्चलो अप्पगं विधारेउ। लोकोत्तरविरुद्ध पदों का आचरण किया है, फिर भी वह बंध के
जह पेल्लितो अदोसो, एमेव इमं पि पासामो।।
जैसे दूसरों द्वारा प्रेरित जीव अपने आपको संस्थापित करने हेतुभूत राग-द्वेष से विकल है इसलिए उसके कर्मों का उपचय
(रोकने) में असमर्थ होकर पृथ्वीकाय आदि की विराधना को नहीं होता। इसमें लोग भी साक्षी हैं। वे कहते हैं-इसने सब कुछ
देखता हुआ भी, करता हुआ भी अदोष होता है वैसे ही हम परवशता में किया है।
क्षिसचित्त मुनि को देखते हैं। १११०. रागद्दोसाणुगता, जीवा कम्मस्स बंधगा होति।
१११७. गुरुगो गुरुगतरागो, अधागुरूगो य होति ववहारो। रागादिविसेसेण य, बंधविसेसो वि अविगीतो।।
लहुगो लहुयतरागो, अहालहूगो य ववहारो।। राग-द्वेष से अनुगत प्राणी ही कर्म-बंधक होते हैं। राग
१११८. लहुसो लहुसतरागो, अधालहूसो य होति ववहारो। आदि की विशेषता (तारतम्य) से ही बंध-विशेष होता है- ऐसा
एतेसिं पच्छित्तं वोच्छामि अधाणुपुव्वीए।। कहा गया है।
१११९. गुरुगो य होति मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो। ११११. कुणमाणी वि य चेट्ठा, परतंता नट्टिया बहुविहा उ।
अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ किरियाफलेण जुज्जति, न जधा एमेव एतं पि॥
११२०. तीसा य पण्णवीसा, वीसा पण्णरसेव य। जैसे (यंत्रकाष्टमयी) नर्तकी परतंत्रता के कारण बहुविध
दस पंच य दिवसाइं, लहुसगपक्खम्मि पडिवत्ती।। चेष्टाएं करती हुई भी क्रियाफल-कर्म से नहीं बंधती वैसे ही
११२१. गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होति दसमं तु। क्षिप्तचित्त कर्मों से नहीं बंधता।
अहगुरुगं बारसमं, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती।। १११२. जदि इच्छसि सासेरी, अचेतणा तेण से चओ नत्थि।
११२२. छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण-पुरिमढं। जीवपरिग्गहिया पुण, बोंदी असमंजसं समता।।
निव्वितिगं दायव्वं, अधालहुसगम्मि सुद्धो वा।। शिष्य ने कहा-यदि आप यह चाहते हैं-मानते हैं कि वह देखें गाथा१०६५ से १०७०। यंत्रमयी नर्तकी अचेतन होने के कारण उसके कर्मों का उपचय ११२३. एसेव गमो नियमा, दित्तादीणं पि होति नायव्वो। नहीं होता किंतु शरीर (क्षिप्तचित्त का) जीवपरिगृहीत-सचेतन है,
जो होइ दित्तचित्तो, सो पलवतिऽनिच्छियव्वाइं। उसके कर्मोपचय संभव है। नर्तकी के दृष्टांत से जो समता की है यही गम (प्रकार) दीप्तचित्त के लिए नियमतः जानना चाहिए। वह असामंजस्यपूर्ण है।
उसमें विशेष यह है कि दीप्तचित्त व्यक्ति अनीप्सित बहुत प्रलाप
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