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________________ या दूसरा उद्देशक ११३ १०९६. मिउबंधेहि तधा णं, जमेंति जह सो सयं तु उद्वेति। द्वार गाथा-राजा को निवेदन। उनके वचन से गवेषणा। उव्वरगसत्थरहिते, बाहि कुडंगे असुण्णं च॥ औषध, वैद्य, संबंधी, उपाश्रय। तीनों में यतना। (विवेचना आगे तथा उस क्षिप्तचित्त मुनि को मृदु बंधनों से इस प्रकार के श्लोकों में।) बांधते हैं कि वह स्वयं उठ-बैठ सके। उसे ऐसे अपवरक में रखते ११०२. पुत्तादीणं किरियं, सयमेव घरम्मि कोइ कारज्जा। हैं जिसमें कोई शस्त्र न हो। उस अपवरक के द्वार को बाहर से अणुजाणंते य तहिं इमे वि गंतुं पडियरंति॥ कुडंग-बांस की खचपियों से बांध दे। उसे शून्य सा कर दे। कोई व्यक्ति क्षिप्तचित्त मुनि स्वयं का पुत्र आदि हो तो वह १०९७. उव्वरगस्स उ असती, उसकी क्रिया-चिकित्सा घर पर ही करा देता है। उन स्वजनों को पुव्वखतऽसती य खम्मते अगडो। कहने पर वे यदि उस बात को स्वीकार कर लेते हैं तो उस तस्सोवरिं च चक्कं, क्षिप्तचित्त मुनि को वहां ले आते हैं। वहां ले आने पर वे गच्छवासी न छिवति जह उप्किंडतो वि॥ मुनि भी उसकी प्रतिचर्या करते हैं। अपवरक के अभाव में पहले खोदे हए निर्जल कूप में तथा ११०३. ओसध वेज्जे देमो, पडिजग्गह णं तहिं ठितं चेव। उसके अभाव में नये कूप को खोदकर (जलरहित) उसमें उस तेसिं च णाउ भावं, न देंति मा णं गिही कुज्जा। क्षिप्तचित्त मुनि को रखे। फिर उस को ढकने के लिए उस पर एक यदि स्वजन ऐसा कहे-औषध और वैद्य की व्यवस्था हम चक्र रखे जिससे वह उछलकर भी बाहर न निकल सके। करेंगे यदि मुनि को यहीं लाकर आप प्रतिचर्या करें। यदि यह ज्ञात १०९८. निद्ध-महुरं च भत्तं, करीससेज्जा य नो जघा वातो।। हो जाए कि स्वजनों की भावना विपरीत है तो वे मुनि को वहां नहीं दिग्वियधातुक्खोभे, नातुस्सग्गे ततो किरिया॥ लाते, यह सोचकर की ये स्वजन मुनि को गृहस्थ न बना लें। (यदि वह वातरोग से ग्रस्त हो तो) उसे स्निग्ध और मधुर ११०४. आहार-उवहि-सेज्जा , आहार दिया जाए। उसके लिए करीषमयी शय्या की जाए' उग्गम-उप्पायणादिसु जतंता। जिससे कि उसे वायु का प्रकोप न हो। उस क्षिप्तचित्त का दैविक वातादी खोभम्मि वि, प्रकोप है अथवा धातु का क्षोभ है, यह जानने के लिए कायोत्सर्ग जयंति पत्तेगमिस्सा वा॥ कर देवता की आराधना करे। देवता जैसा कहे वैसी क्रिया करे। (११०१ श्लोक में) तीनों की यतना इतना कहा है। इसका १०९९. अगडे पलाय मग्गण, अन्नगणा वा वि जे न सारक्खे। तात्पर्य है कि आहार, उपधि और शय्या में यतना करे। इन तीनों गुरुगा य जं च जत्तो, तेसिं च निवेयणाकरणं॥ के विषय में उद्गम, उत्पादन आदि दोषों के प्रति प्रयत्नवान् रहे। कूप में रक्षित क्षिप्तचित्त मुनि यदि पलायन कर जाए तो वायु आदि का क्षोभ होने पर प्रत्येक अर्थात् सांभोगिक तथा उसकी खोज करनी चाहिए। आसपास में जो अन्य गण हों तो असांभोगिक से मिश्र होकर भी पूर्वोक्त यतना से परिचर्या करे। उनको भी ज्ञात करना चाहिए कि हमारा एक मुनि, जो क्षिप्तचित्त ११०५. पुव्वद्दिट्ठो य विधी, इह वि करेंताण होति तह चेव। था, चला गया है। वह यदि मिले तो उसका संरक्षण करें। यदि तेगिच्छम्मि कयम्मि य, आदेसा तिन्नि सुद्धो वा। उसकी गवेषणा नहीं की जाती है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त पूर्व उद्दिष्ट विधि के अनुसार प्रस्तुत क्षिप्तचित्त के प्रसंग में तथा उस क्षिप्तचित्त के द्वारा की गई विराधना का प्रायश्चित्त भी भी वही प्रतिपादित है। उसकी चिकित्सा करने पर प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। संबंधी तीन आदेश हैं-गुरुक, लघुक तथा लघुस्वक। इनमें ११००. छम्मासे पडियरिउं, अणिच्छमाणेसु भुज्जतरगो वा। तीसरा आदेश सूत्रोपदिष्ट है, प्रमाण है। अथवा वह शुद्ध है कुल-गण-संघसमाए, पुव्वगमेणं निवेदेज्जा॥ प्रायश्चित्तभाक् नहीं है। पूर्वोक्त प्रकार से छह मास तक उसकी परिचर्या करे। ११०६. चउरो य होंति भंगा, तेसिं वयणम्मि होति पण्णवणा। उससे भी यदि ठीक न हों तो विशेष परिचर्या करनी चाहिए। यदि परिसाए मज्झम्मी, पट्ठवणा होति पच्छित्ते।। मुनि सघन परिचर्या करनी न चाहे तो कुल, गण और संघ का चारित्र की वृद्धि हानि के आधार पर उसके चार भंग होते समवाय करके पूर्वगम अर्थात् कल्पोक्तप्रकार से उन्हें निवेदन हैं। भंगों के वचनों के आधार पर परिषद् के बीच प्रज्ञापना होती करना चाहिए। फिर उनकी आज्ञानुसार वर्तन करना चाहिए। है। (यदि शुद्धिमात्र निमित्तक प्रायश्चित्त देना होता है तो।) लघुस्वक ११०१. रण्णो निवेदितम्मि, तेसिं वयणे गवेसणा होति। प्रायश्चित्त की प्रस्थापना होती है। ओसधवेज्जासंबंधुवस्सए तीसु वी जतणा॥ १. यह शय्या ऊष्ण होती है। उससे वात और श्लेष्म का अपहार होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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