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________________ ११२ सानुवाद व्यवहारभाष्य १०८७. अवधीरितो व गणिणा, यदि इस यतना से भी क्षिप्तचित्तता का निवर्तन नहीं होता है अहवण सगणेण कम्हिइ पमाए। तो उसका संरक्षण करना चाहिए। संरक्षण न करने पर चार वायम्मि वि चरगादी, गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञा-अनवस्थापराजितो तत्थिमा जतणा।। मिथ्यात्व विराधना के दोष उत्पन्न होते हैं। असंरक्षित होता हुआ गुरु द्वारा उपालब्ध होने पर अथवा किसी प्रमाद पर वह क्षिप्तचित्त मुनि जिसका प्रतिसेवन करता है और जो अनर्थ स्वगच्छ द्वारा अपमानित होने पर अथवा चरक आदि परतीर्थिकों प्राप्त करता है, उसके निमित्त भी प्रायश्चित्त है। के साथ वाद में पराजित होने पर, क्षिप्तचित्तता हो सकती है। उस १०९२. छक्कायाण विराधण, झामण तेणाऽतिवायणं चेव। प्रसंग में यह यतना है। अगडे विसमे पडिते, तम्हा रक्खंति जतणाए। १०८८. कण्णम्मि एस सीहो, वह असंरक्षित क्षिप्तचित्त षट्काय की विराधना, अग्नि को गहितो अध धाडितो य सो हत्थी। बुझाना, चोरी करना, स्वयं य अन्य को नीचे गिराना, कूप अथवा खुड्डलतरगेण तु मे, अन्य विषम स्थान में गिरना ये क्रियाएं कर सकता है। इसलिए ते विय गमिया पुरा पाला॥ यतनापूर्वक उसका संरक्षण करना चाहिए। आचार्य पहले ही हस्तिपाल, सिंहपाल आदि को सारी १०९३. सस्सगिहादीणि डहे, तेणे अहवा सयं व हीरेज्जा। बात समझाकर उनको हाथी और सिंह के साथ उपाश्रय में आने मारण पिट्टणमुभए, तद्दोसा जं च सेसाणं॥ को कहते हैं। लघुतर मुनि को सिंह का कान पकड़ने और दूसरे वह धान्यगृह आदि में आग लगा सकता है। वह स्वयं को हाथी को धाटित करने-उस पर चढ़ने-उतरने के लिए कहते चोरी कर सकता है अथवा दूसरा कोई चुरा सकता है। वह किसी हैं। फिर आचार्य क्षिप्तचित्त को कहते है-देखो, इस छोटे मुनि ने को मार सकता है, पीट सकता है अथवा दोनों कर सकता है। भी सिंह को पकड़ लिया, इसने हाथी को धाटित कर लिया। (तुम अथवा स्वयं को मार-पीट सकता है। उसके इन दोषों के कारण भय खाते हो। क्या तुम इनसे भी भीरू हो गए।) दूसरे भी उसको मार-पीट सकते हैं तथा शेष साधुओं को भी इन १०८९. सत्थऽग्गिं थंभेउं, पणोल्लणं णस्सते य सो हत्थी। आघातों का भागीदार होना पड़ता है। थेरीचम्मविकवण, अलातचक्कं च दोसुं तु॥ १०९४. महिड्डिए उट्ठनिवेसणा य, जो शस्त्र अथवा अग्नि से क्षिप्तचित्त हुआ हो, तब शस्त्र आहार-विगिंचणा-विउस्सग्गो। और अग्नि का विद्या से स्तंभन कर पैरों से कुचलना चाहिए। जो रक्खंताण य फिडिते, हाथी से क्षिप्सचित्त हुआ हो उसे दिखाना चाहिए कि देखो, हाथी पलायन कर रहा है। जो मेघ के गर्जन से भयग्रस्त हुआ है, अगवेसणे होति चउगुरुगा। इस स्थिति में महर्द्धिक अर्थात् नगर और गांव के रक्षक उसको कहते हैं-यह स्थविरों द्वारा खींचे गए सूखे चमड़े की आवाज है। (उसे उस क्रिया का शब्द सुनाते हैं।) अग्नि और को कहना चाहिए। उस क्षिसचित्त को ऐसे मृदु बंधन से बांधना विद्युत् के कारण हुए क्षिप्तचित्त दोनों मुनियों को अलातचक्र चाहिए जिससे वह सुखपूर्वक स्वयं उठ सके, बैठ सके। उसे दिखाते हैं। यथायोग्य आहार देना चाहिए। उसके उच्चार-प्रस्रवण का १०९०. एतेण जितो मि अहं, तं पुण सहसा न लक्खियं णेण। परिष्ठापन करना चाहिए। यदि ज्ञात हो कि यह देवताकृत उपद्रव धिक्कयकइतवलज्जावितेण पउणो ततो खड्डो।। है तो देवता की आराधना के लिए कायोत्सर्ग कर देवता के जो वाद में पराजय होने के कारण क्षिप्तचित्त हुआ है, उसके कथनानुसार उपाय करना चाहिए। इस प्रकार क्षिप्तचित्त का समक्ष उस एक वादी चरक को बुलाकर कहलवाया जाता है-मैं संरक्षण करने पर भी वह भाग जाए तो उसकी गवेषणा करनी इन मुनि से वाद में हार गया था। इसको उसका सहसा भान नहीं चाहिए। गवेषणा न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ। यह सुनकर लोगों को धिक्कार का बहाना कर उसे लज्जित करना चाहिए। इस यतना से मुनि स्वस्थचित्त हो जाते हैं। १०९५. अम्हं एत्थ पिसाओ, रक्खंताणं पि फिट्टति कयाई। १०९१. तह वि य अठायमाणे, सो हु परिक्खेयव्वो, महिड्डियाऽऽरक्खिए कधणा।। संरक्खमरक्खणे य चउगुरुगा। महर्द्धिक को जाकर कहे-हमारे इस उपाश्रय में एक आणादिणो य दोसा, पिशाच-ग्रथिल मुनि है। हम उसकी रक्षा करते हैं। फिर भी वह जं सेवति जं च पाविहिति॥ कभी-कभी यहां से निकल जाता है। उसकी रक्षा करनी चाहिए। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org होता है। Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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