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________________ दूसरा उद्देशक १११ १०७४. आलोयणं गवेसण,आयरिओ कुणति सव्वकालंपि। राग से जैसे राजपुत्र क्षिप्तचित्त हो गया, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। उप्पण्णकारणम्मी, सव्वपयत्तेण कायव्वं॥ १०८१. जितसत्तुनरवतिस्स उ, पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि क्षेत्र के बाहर स्थित है। पव्वज्जा सिक्खणा विदेसम्मि। आचार्य को चाहिए कि वे उसका अवलोकन करे, उसके प्रायोग्य काऊण पोतणम्मी भक्त-पान की गवेषणा करे। जब तक पारांचित अवस्था का काल सव्वायं निव्वुतो भगवं॥ है तब तक सदा करे। उसके कारण उत्पन्न हो जाने पर सर्वप्रयत्न १०८२. एगो य तस्स भाया, रज्जसिरिं पयहिऊण पव्वइतो। से आचार्य उसकी देखभाल करे। __ भाउगअणुरागेणं, खित्तो जातो इमो उ विधी॥ १०७५. जो उ उवेहं कुज्जा, आयरिओ केणई पमादेणं। जितशत्रु राजा की प्रव्रज्या संपन्न हुई। शिक्षण प्रवृत्त हुआ। आरोवणा तु तस्सा, कायव्वा पुवनिद्दिट्ठा॥ कालांतर में वे विदेश में पोतनपुर में गए। वहां भलीभांति वाद यदि आचार्य किसी प्रमादवश उसकी उपेक्षा करते हैं तो कर, विजय प्राप्त कर निवृत्त हो गए, मुक्तिगामी हो गए। उनका उनको पूर्वनिर्दिष्ट आरोपणा प्रायश्चित्त (चार लधुमास) देना एक भाई राज्यश्री का परित्याग कर प्रव्रजित हुआ। उसने चाहिए। ज्येष्ठभाई को कालगत जानकर, भाई के अनुराग के कारण १०७६. घोरम्मि तवे दिन्ने, भएण सहसा भवेज्ज खित्तो उ। क्षिप्तचित्त हो गया। यह विधि है उसको स्वस्थचित्त करने की। गेलन्नं वा पगतं, अगिलाकरणं च संबंधो॥ १०८३. तेलोक्कदेवमहिता, तित्थगरा नीरया गता सिद्धिं । घोर तप का प्रायश्चित्त देने पर भय से सहसा मुनि थेरा वि गता केई, चरणगुणपभावणा धीरा॥ क्षिप्तचित्त हो जाता है, ग्लान हो जाता है। उसको ग्लान मानकर (उसको उपदेश देना चाहिए कि) तीनों लोक के देवों द्वारा अग्लान भाव से उसका वैयावृत्त्य करना चाहिए। यह पूर्व सूत्र से पूजित तीर्थंकर नीरज-कर्ममल से रहित होकर सिद्धिगति को संबंध है। प्राप्त हो गए। कई चरणगुणप्रभावक तथा धीर स्थविर भी १०७७. लोइय लोउत्तरिओ, दुविहो खित्तो समासतो होति।। सिद्धगति को प्राप्त हो गए। (तो फिर अन्य व्यक्तियों की तो बात ___कह पुण हवेज्ज खित्तो, इमेहि सुण कारणेहिं तु॥ ही क्या ?) संक्षेप में क्षिप्त दो प्रकार का होता है-लौकिक और १०८४. न हु होति सोइयव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि। लोकोत्तरिक। शिष्य ने पूछा-क्षिप्तचित्त कैसे होता है ? आचार्य सो होति सोइयव्वो, जो संजमदुब्बलो विहरे।। कहते है-वत्स! सुनो, इन कारणों से होता है। जो चारित्र में दृढ़ रहकर कालगत होता है वह शोचनीय१०७८. रागेण वा भएण व, अधवा अवमाणितो नरिंदेणं। शोक करने योग्य नहीं होता। वह शोचनीय होता है जो संयम में ___ एतेहिं खित्तचित्तो, वणियादि परूविया लोगे॥ दुर्बल होकर विहरण करता है, मरता है। राग से अथवा भय से अथवा राजा के द्वारा अपमानित होने १०८५. जो जह व तह व लद्धं, भुंजति आहार-उवधिमादीयं । पर-इन कारणों से क्षिप्तचित्त होता है। लोक में वणिग् आदि को समणगुणमुक्कजोगी, संसारपवड्डगो भणितो॥ उदाहरण के रूप में प्ररूपित किया है। जो मुनि जहां जैसे-तैसे मिले आहार और उपधि आदि का १०७९. भयतो सोमिलबडुओ,सहसोत्थरितो व संजुगादीसु। उपभोग करता है, जिसके योग श्रमणगुणों से मुक्त हैं, उसे संसार धणहरणेण पहूण व, विमाणितो लोइया खित्तो।। को बढ़ाने वाला कहा है। भय से सोमिल ब्राह्मण, संग्राम तथा शत्रुसेना का आक्रमण १०८६. जड्डादी तेरिच्छे, सत्थे अगणी य थणियविज्जू य। होने पर सहसा भयाक्रांत होने से तथा स्वामी अथवा राजा के ओमे पडिभेसणता, चरगं पुव्वं परूवेउं। द्वारा धन का अपहरण किए जाने पर अपमानित होने के कारण हाथी आदि पशुओं को देखकर, शस्त्र, अग्नि आदि को क्षिप्तचित्त हो जाता है। ये लौकिक उदाहरण हैं। देखकर, मेघ के गर्जारव को सुनकर, बिजली को देखकर कोई १०८०. रागम्मि रायखुड्डो, जड्डादि तिरिक्ख चरग वादम्मि। क्षिप्तचित्त हो जाता है तो प्रतिकार के रूप में उस क्षिप्तचित्त मुनि रागेण जहा खित्तो, तमहं वोच्छं समासेणं॥ से अति लघु मुनि द्वारा हाथी आदि को डराने की क्रिया करानी राग से क्षिप्तचित्त हुआ राजपुत्र, हाथी आदि तिर्यचों को चाहिए। यदि वादपराजय के कारण क्षिसचित्तता है तो चरक को देखकर भय से क्षिप्तचित्त हो जाना अथवा चरक के साथ वाद में पूर्व प्रज्ञापित कर उसके मुख से शिष्य के विजय की बात प्रगट पराजित हो गया-इस अपमान से व्यक्ति क्षिप्तचित्त हो जाता है। करानी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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