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________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य (यदि शय्यातर को अत्यंत अप्रीति हो जाए और अन्य पंद्रह दिन परिमाण, लघुस्वतरक दस दिन, यथालघुस्वक पांच वसति की याचना करनी पड़े तो) बहुत साधुओं के प्रायोग्य दिन परिमाण प्रायश्चित्त। (ये तीनों प्रकार के व्यवहारों के उपाश्रय के अभाव में दो या तीन वृषभ मुनि कपटपूर्वक कलह कर प्रायश्चित्तों की प्रतिपत्तियां हैं।) (कलह-व्याज से) अन्य वसति में चले जाते हैं। वहां रहकर ये १०६९. गुरुगं च अट्ठमं खलु, गुरुगतरागं च होति दसमं तु। पारिहारिक की परिचर्या करते हैं। दूसरे मुनि भी औषधि आदि का अहगुरुग दुवालसम, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ उत्पादन (याचना) कर बाहर पारिहारिक के संक्षोभ-समीप में गुरुक व्यवहार मास परिमाणवाला होता है। वह अष्टम भेज देते हैं। (तेले) की तपस्या से, चतुर्मास परिमाणवाला होता है गुरुतरक १०६३. ते तस्स सोधितस्स य उव्वत्तण संतरं व धोवेज्जा। व्यवहार, वह दसम (चोले) की तपस्या से, यथागुरुक व्यवहार अच्छिक्कोवधि पेहे, अच्चितलिंगेण जो पउणो॥ छहमास का होता है, वह बारह (पंचोले) की तपस्या से पूरा हो वे कलह-व्याज से अन्य वसति में गए मुनि उस शोधित- जाता है। प्रायश्चित्त प्राप्त (पारिहारिक) मुनि का उद्वर्तन करते हैं। सांतर- १०७०. छटुं च चउत्थं वा, आयंबिल-एगठाण-पुरिमहूं। एक वस्त्र से अंतरित कर उसके वस्त्रों का प्रक्षालन करते हैं, निव्वितिगं दायव्वं, अधालहसगम्मि सुद्धो वा॥ उसकी उपधि अस्पृष्ट होने पर भी उसकी प्रत्युपेक्षणा करते हैं। लघुक व्यवहार (तीस दिन परिमाण) षष्ट (बेले) की अर्चितलिंग (राजप्रद्वेष के कारण जो लिंग धारण किया है) में उस तपस्या से, लघुतरक व्यवहार चतुर्थ (उपवास) की तपस्या से, पारिहारिक की तब तक परिचर्या करते हैं जब तक वह स्वस्थ यथालघुक व्यवहार आचाम्ल करने से पूरा हो जाता है। नहीं हो जाता। लघुस्वक व्यवहार एकस्थान करने से, लघुतरस्वक पूर्वार्ध करने १०६४. ववहारो आलोयण, सोही पच्छित्तमेव एगट्ठा। से, यथालघुस्वक निर्विकृतिक करने से पूरा हो जाता है। इस थोवो उ अधालहुसो, पट्ठवणा होति दाणं तु॥ प्रकार आलोचना देने से शुद्धि होती है। व्यवहार, आलोचना, शोधि और प्रायश्चित्त एकार्थक हैं। १०७१. पच्छित्तं खलु पगतं, निज्जूहणठाणुवत्तते जोगो। यथालघु अर्थात् स्तोक, प्रस्थापना अर्थात् प्रस्थापयितव्य, दान होति तवो छेदो वा, गिलाण तुल्लाधिगारं वा॥ अर्थात् देना। यथालघुस्वक व्यवहार की प्रस्थापना करनी पूर्वसूत्र से प्रस्तुत सूत्र का संबंध यह है-प्रायश्चित्त का चाहिए। अधिकार चल रहा है। निर्ग्रहणस्थान का अनुवर्तन है। पूर्व में १०६५. गुरुगो गुरुगतरागो, अधागुरूगो य होति ववहारो। तपोर्ह प्रायश्चित्तप्राप्त का सूत्र कहा गया था। यह छेदार्ह लहुसो लहुसंतरागो, अहालहूसो य ववहारो॥ प्रायश्चित्तप्राप्त का सूत्र है। अथवा पूर्व सूत्र में प्रायश्चित्त वहन में १०६६. लहुसो लहुसतरागो अहालहूसो य होति ववहारो। ग्लान होने वाले की विधि कही गई है। प्रस्तुत में भी उसी का एतेसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अधाणुपुव्वीए॥ तुल्य अधिकार है। व्यवहार के तीन प्रकार हैं-गुरुक, लघुक और लघुस्वक। १०७२. सगणे गिलायमाणं , कारण परगच्छमागयं वा वि। गुरुक के तीन प्रकार हैं-गुरुक, गुरुतरक तथा यथागुरुक। लघुक मा हु न कुज्जा निज्जूहगो त्ति इति सुत्तसंबंधो॥ के तीन प्रकार हैं-लघुक, लघुतरक, यथालघुक। लघुस्वक के पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि स्वगण में ग्लानि का तीन प्रकार हैं-लघुस्व, लघुस्वतरक तथा यथालघुस्वक। इन अनुभव करता हुआ अथवा अन्य कारणों से परगण में आ जाने प्रायश्चित्तों का यथानुपूर्वी वर्णन करूंगा। पर भी वह नियूहित-निष्कासित है ऐसा सोचकर उसकी १०६७. गुरुगो य होति मासो, गुरुगतरागो भवे चउम्मासो। वैयावृत्त्य न करे ऐसा नहीं है, किंतु उसकी वैयावृत्त्य अवश्य करे। अहगुरुगो छम्मासो, गुरुगे पक्खम्मि पडिवत्ती॥ पूर्वसूत्र के साथ इसका यह संबंध है। गुरुक व्यवहार का परिमाण है एक मास का प्रायश्चित्त, १०७३. अणवठ्ठो पारंची, पुव्वं भणितं इमं तु नाणत्तं। गुरुतरक का चार मास का तथा यथागुरुक का छह मास का कायव्व गिलाणस्स तु, अकरणे गुरुगा य आणादी। परिमाण है। यह गुरुक व्यवहार की त्रिविध प्रायश्चित्त-प्रतिपत्ति है। अनवस्थाप्य और पारांचित के विषय में पूर्व अर्थात् १०६८. तीसा य पण्णवीसा, वीसा पण्णरसेव य। कल्पाध्ययन में कहा जा चुका है। उसमें यह विशेष है। ग्लान की दस पंच य दिवसाइं, लहसगपक्खम्मि पडिवत्ती॥ वैयावृत्त्य करनी चाहिए। वैयावृत्त्य न करने पर चार गुरुमास का लघुक व्यवहार तीस दिवस परिमाण, लघुतरक पचीस प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व, विराधना दिवस, यथालघुक बीस दिवस परिमाण प्रायश्चित्त। लघुस्वक आदि दोष उत्पन्न होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org शा
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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