________________
दूसरा उद्देशक
१०९ १०५३. निववेडिं च कुणंतो जो कुणती एरिसा गिला होति । इन विकल्पों का अतिक्रमण कर प्रवेश करने पर चार
पडिलेहुट्ठवणादी, वेयावडियं तु पुव्वुत्तं॥ गुरुमास का प्रायश्चित्त, ऐसे प्रतिषिद्ध प्रवेश से एक साधु की भी
जो नृपवेष्टि-राजवेठ की भांति वैयावृत्त्य करता है, ऐसी मृत्यु हो जाने पर पारांचित प्रायश्चित्त, शय्यातर की मृत्यु हो होती है गिला-ग्लानि अर्थात् इससे ग्लानि होती है। प्रतिलेखन, जाने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसलिए उत्थापन आदि रूप वैयावृत्त्य का कथन पहले किया जा चुका है। पारिहारिक गांव के बाहर रहे। वहां यदि कल्पस्थक, सिद्धपुत्र, १०५४. परिहारियकारणम्मि,
श्रावक, साधु अथवा गृहस्थ को देखे तो उसके साथ संदेश भेजे __ आगमनिज्जूहणम्मि चउगुरुगा।। (कि तुम गांव में साधुओं को कहो कि बाहर मुनि तुमसे मिलना आणादिणो य दोसा,
चाहता है।) जं सेवति तं च पाविहिति॥ १०५९. गंतूण पुच्छिऊणं, तस्स य वयणं करेंति न करेंति। किसी कारणवश पारिहारिक के आगमन पर यदि उसका ___एगाभोगण सव्वे, बहिठाणं वारणं इतरे। निर्ग्रहण किया जाता है तो निर्गृहण करने वाले को चार गुरुमास संदेश पाकर ग्रामस्थ साधु आकर उस पारिहारिक मुनि को का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उसे आज्ञा आदि दोष प्राप्त होते हैं पूछते हैं। जब वह कहता है-मैं अशिव से ग्रस्त हूं तो वे उसके तथा जिन-जिन कारणों से प्रातिहारिक प्रतिसेवना करता है, ग्राम प्रवेश के कथन के अनुसार करते भी हैं और नहीं भी करते। उनका भी प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
उसको सदृश अथवा विसदृश अशिव के अनुसार उसको १०५५. कालगतो से सहाओ, असिवे राया व बोहिय भए वा। स्थापित कर एक मुनि उसका आभोगन-प्रतिजागरण करता है
एतेहिं कारणेहि, एगागी होज्ज परिहारी॥ और शेष सारे साधु उसके प्रायोग्य औषध आदि की याचना १०५६. तम्हा कप्पठितं से, अणुपरिहारिं व ठावित करेज्जा।। करते हैं। यदि उस अशिव गृहीत मुनि को वसति में लाने पर
बितियपदे असिवादी, अगहितगहितम्मि आदेसो॥ शय्यातर को अप्रीति होती हो तो उस मुनि को गांव के बाहर पारिहारिक का सहायक कालगत हो गया हो, अशिव (क्षुद्र अथवा वसति से दूर रखे। अन्य कोई उस मुनि का योगक्षेम देव उपद्रव) हुआ हो, राजा प्रद्विष्ट हो गया हो, म्लेच्छों का भय पूछकर वसति में आना-जाना करे तो उसका वारण करे। (तुम उत्पन्न हो गया हो-इन कारणों से पारिहारिक अकेला हो जाता वहां जाकर आते-जाते हो तो अशिव का यहां भी संक्रमण हो है। उसके आगमन पर (समस्त गच्छ के समक्ष) कल्पस्थित सकता है।) तथा अनुपारिहारिक की स्थापना कर प्रायश्चित्त का परिज्ञान १०६०. वोच्छिन्नघरस्सऽसती, पिहढुवारे वसंति संबद्धे। कराना चाहिए। अशिव आदि के अपवाद में अगृहीत और गृहीत
एगो तं पडिजग्गति, जोग्गं सव्वे वि झोसंति॥ के विषय में यह आदेश है, चतुर्भंग्यात्मक प्रकार है।
व्यवच्छिन्न उपाश्रय के अभाव में विभिन्न द्वार वाले संबद्ध १०५७. गहितागहिते भंगा,
उपाश्रय में एक द्वार पर पारिहारिक को स्थापित कर दे। एक मुनि चउरो न उ विसति पढम-बितिएसु।। उसकी परिचर्या करे और शेष मुनि उसके प्रायोग्य औषधि आदि इच्छाय ततियभंगे,
की मार्गणा करें। सुद्धो उ चतुत्थओ भंगो।। १०६१. सागारियअचियत्ते, बहि-पडियरणा तथा वि नेच्छंते। गृहीत और अगृहीत विषयक चार भंग हैं
अदितु कुणति एगो, न पुणो त्ति य बेंति दिम्मि॥ १. गच्छ अशिव से गृहीत है, पारिहारिक नहीं।
यदि ग्रामस्थ उपाश्रय के शय्यातर में अप्रीति हो जाए तो २. पारिहारिक गृहीत है, गच्छ नहीं।
पारिहारिक को गांव के बाहर दूसरे स्थान में रखे और एक मुनि ३. पारिहारिक और गच्छ-दोनों गृहीत हैं।
उसकी प्रतिचर्या में रहे। यह भी यदि शय्यातर को इष्ट न हो तो ४. पारिहारिक और गच्छ-दोनों गृहीत नहीं हैं।
शय्यातर को अज्ञात रखकर एक मुनि उसकी परिचर्या करे। यदि इनमें से प्रथम और द्वितीय भंग में प्रवेश न करे। तृतीय भंग । शय्यातर देख ले या ज्ञात कर ले तो उसे कहे-अब नहीं में इच्छा से प्रवेश करे, चतुर्थभंग शुद्ध है।
जाऊंगा। १०५८. अतिगमणे चउगुरुगा, साहू सागारि गाम बहि ठंति। १०६२. बहुपाउग्गउवस्सय, असती वसभा दुवेऽहवा तिण्णि। __कप्पट्ठ सिद्ध सण्णी, साहु गिहत्थं व पेसेति॥
कइतवकलहेणऽण्णहि, उप्पायण बाहि संछोभो।। १. प्रथम भंग में पारिहारिक के तथा द्वितीय भंग में वास्तव्य मुनियों के से गृहीत हैं तो प्रवेश करे। यदि विसदृश हो तो प्रवेश न करे। ऐसा
अनर्थ हो सकता है। यदि पारिहारिक और गच्छ-दोनों समान अशिव करने पर दोनों में से किसी का भी अनर्थ हो सकता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org