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१०४२. परबलपहारचइया, वायासरतोदिता य ते पहुणा । परपच्चूह-असत्ता, तस्सेव भवंति घाताए । १०४३. नामेण व गोत्तेण व पसंसिया चेव पुष्वकम्मेहिं । भगवणिया वि जोधा, जिणंति सत्तुं उदिण्णं पि ॥ जो योद्धा शत्रुसेना के प्रहारों से घबराकर रणस्थली को छोड़कर लौट आते हैं, उनको उनका स्वामी वाक्बाणों से ताड़ित करता है । वे योद्धा (वाक्बाणों से अत्यंत पीड़ित होकर) शत्रु के विघ्न को मिटाने में असमर्थ होते हुए भी अपने ही राजा के व्याघात के लिए होते है और जो राजा रणभूमि से घबरा कर आए हुए योद्धाओं के नाम और गोत्र के आधार पर तथा पूर्वकृत कार्यों के आधार पर प्रशंसा करता है, वे योद्धा शत्रुओं के प्रहारों से भग्न और व्रणित होने पर भी प्रबल शत्रु को जीत लेते हैं। १०४४. इय आउरपडिसेवंत, चोदितो अधव तं निकायंतो । लिंगारोवणचागं करेज्ज घातं च कलहं वा ॥ कोई आतुर अर्थात् परीषह से पराजित व्यक्ति प्रतिसेवना करता है और दूसरा उसको न करने की प्रेरणा देता है अथवा जब वह मुनि प्रतिसेवना की निकाचना आलोचना करता है तब उसको परुषभाषा में कुछ कहता है तो वह आलोचक मुनि लिंग तथा आरोपणा-प्रायश्चित्त का त्याग कर देता है अथवा प्रेरक की घात कर देता है, कलह करता है।
१०४५. जं पि न चिण्णं तं तेण, चमढियं पेल्लितं वसभराए । केदारेक्कदुवारे, पोयालेणं निरुद्धेणं ॥ एक खेत के चारों ओर परिक्षेप था, प्रवेश का एक ही द्वार था। एक सांड उसमें चला गया। खेत के स्वामी ने द्वार बंद कर सांड को भीतर निरुद्ध कर उसको पीटने लगा। जो खेत की फसल सांड द्वारा नहीं कुचली गई, वह भी इधर-उधर भागते सांड ने कुचल कर नष्ट कर दी।
१०४६. तणुयम्मि वि अवराधे, कतम्मि अणुवाय चोदितेणेवं ।
सेसचरणं पि मलियं, अपसत्थ-पसत्थबितियं तु ॥
इसी प्रकार थोड़े अपराध पर भी अनुपाय से प्रेरणा देने पर वह मुनि शेष चारित्र को भी मलिन कर डालता है। वृषभ का यह अप्रशस्त दृष्टांत है। दूसरा प्रशस्त दृष्टांत भी हैं। " १०४७. तेणेव सेवितेणं, असंघरंतो वि संथरो जातो। बितिओ पुण सेवतो, अकप्पियं नेव संथरति ॥ पूर्व सूत्र में यह कहा गया था कि प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त वहन करने में असमर्थ होते हुए भी वह उसको वहन करने में समर्थ हो गया। दूसरे सूत्र में यह कहा गया है कि अकल्पिक प्रतिसेवना कर उसका प्रायश्चित्त वहन करने में समर्थ नहीं होता। १. खेत के स्वामी ने खेत में सांड को शालि खाते देखा। वह द्वार के एक ओर खड़ा होकर पत्थरों से सांड को आहत किया। सांड आहत
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१०४७/१. जं से अणुपरिहारी,
न निसिद्धति जा
सानुवाद व्यवहारभाष्य
करेति तं जड़ बलम्मि संतम्मि
सातिज्ञ्जणा तु तहियं तु सद्वाणं ॥
उस पारिहारिक मुनि की वैयावृत्त्य के निमित्त जो क्रियाएं अनुपारिहारिक करता है, यदि शक्ति होने पर भी पारिहारिक उसका निषेध नहीं करता, वह स्वादना है, अनुमोदना है। उसका स्वस्थान प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १०४८. एमेव बितियसुत्ते, नाणत्तं नवरऽसंथरंतम्मि | करणं अणुपरिहारी, चोदग! गोणीय दिट्ठतो ॥ पूर्व सूत्र में जो उभयबल की बात कही गई है, वही दूसरे सूत्र में भी वक्तव्य है विशेष यही है कि यदि अकल्पिक प्रतिसेवना से भी संस्तरण नहीं होता है तो जो पारिहारिक कहता है वैसे ही अनुपारिहारिक करता है। यहां वत्स ! गोणी का दृष्टांत है।
१०४९. पेहाभिक्खरगहणे, उद्वैत निवेसणे य धुवणे य जं जं न तरति काउं, तं तं से करिति बितिओ तु ॥ अनुपारिहारिक के करने योग्य कार्य-प्रेक्षा भांड का प्रत्युपेक्षण, भिक्षाग्रहण करना, पारिहारिक को उठाना, बिठाना, पात्र आदि धोना जो जो कार्य पारिहारिक नहीं कर सकता, उन कार्यों को दूसरा अर्थात् अनुपारिहारिक करता है । १०५०. जं से अणुपरिहारी, करेति तं जइ बलम्मि संतम्मि । न निसेहइ सा सातिज्जणा उ तहियं तु सट्ठाणं ॥
देखें गाथा १०४७/ १ का अनुवाद | १०५१. तवसोसियस्स वातो,
भेज्ज पित्तं व दो वि समगं वा ।
सन्नग्गिपारणम्मी,
गेलन्नमयं तु संबंधो ॥
तप (परिहारतप) से शोषित शरीर में वायु क्षुब्ध हो सकती है, पित्त क्षुब्ध हो सकता है अथवा दोनों साथ-साथ उभर सकते हैं। इससे जठराग्नि मंद हो जाती है। तपस्या का पारणा करने पर ग्लानत्व हो सकता है। यही सूत्र का संबंध है । १०५२. पढमवितिएहि न तरति, गेलण्णेणं तवो किलंतो वा ।
निज्जूहणा अकरणं, ठाणं च न देति वसधी ॥ पहले तथा दूसरे परीषह (क्षुत्र पिपासा) को सहन न कर सकने के कारण ग्लान हो गया हो अथवा तपस्या से क्लांत हो गया हो, निर्यूहना-वैयावृत्त्य न करने पर अथवा वसति में स्थान न देने पर ये सारे ग्लानि के कारण हैं।
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होकर द्वार से बाहर निकल गया। फसल बच गई। आचार्य को भी आलोचक शिष्य को उपाय से प्रेरित करना चाहिए।
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