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________________ २९२ सानुवाद व्यवहारभाष्य शा ३१८७. गहितम्मी कालम्मी, दंडधरो अच्छती तहिं चेव। स्वाध्याय-अस्वाध्याय संबंधी एक, दो मुनियों की शंका इयरो पुण आगच्छति, जतणाए पुव्वभणिताए॥ हो तो स्वाध्याय किया जाता है। तीन को शंका होने पर स्वाध्याय काल-ग्रहण करने के पश्चात् दंडधर वहीं (कालभूमी में) नहीं किया जाता। स्वगण में शंकित होने पर परगण में जाकर बैठ जाता है। दूसरा कालग्राही पूर्वकथित यतनापवूक वहां आता। नहीं पूछा जाता। क्योंकि जहां अस्वाध्यायिक होता है वहां है। आशंका होती है। स्थानांतरवर्ती परगण में वह न भी हो। ३१८८.जो गच्छंतम्मि विही, आगच्छंतम्मि होति सच्चेव। ३१९४. पादोसितो अभिहितो, इदाणि सामन्नतो तु वोच्छामि। जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ कालचउक्कस्स वि तू, उवधायविधी उ जो जस्स। जो विधि जाने की कही गई है वही विधि आते समय की है। इस प्रकार प्रादोषिक काल का कथन किया गया है। अब जो उसमें नानात्व है वह मैं संक्षेप में कहूंगा। सामान्यतः कालचतुष्क की उपघातविधि, जिसकी जो है, वह ३१८९. अकरण निसीहियादी, आवडणादी य होति जोतिक्खे। कहूंगा। अपमज्जिते य भीते, छीते छिन्ने यकालवधो॥ ३१९५. इंदियमाउत्ताणं, हणंति कणगा उ सत्त उक्कोसं। नैषेधिकी आदि न करने, प्रस्खलित हो जाने, दीपक का वासासु य तिन्नि दिसा, उडुबद्धे तारगा तिन्नि ।। स्पर्श हो जाने, भूमी का प्रमार्जन न करने, भयभीत हो जाने, छींक जो मुनि सभी इंद्रियों से उपयुक्त हैं, उनके उत्कर्षतः सात आ जाने अथवा मार्जार आदि द्वारा मार्ग को काट देने ये सारे कनक काल का हनन करते हैं। वर्षाकाल में यदि तीनों दिशाएं कालवध के कारण हैं। प्रकाशयुक्त हों तो प्राभातिक कालशुद्धि होती है। ऋतुबद्ध काल में ३१९०. इरियावहिया हत्थंतरे वि, मंगलनिवेदणा समयं । तीन तारों के दीखने पर ही कालग्रहण किया जाता है। सव्वेहि वि पट्ठविते, पच्छाकरणं अकरणं वा॥ ३१९६. कणगा हणंति कालं, ति पंच सत्तेव घि-सिसिरवासे। . एक हाथ की दूरी से आने पर भी इर्यापथिकी से प्रतिक्रमण उक्का उ सरेहागा, रेहारहितो भवे कणगो।।। करना चाहिए। फिर गुरु को शुद्धकाल का मंगल निवेदन करना ३१९७. वासासु पाभातिए, तिण्णि दिसा जइ पगासजुत्ता उ। चाहिए। उसके पश्चात् सभी एक साथ स्वाध्याय की प्रस्थापना सेसेसु तिसु वि चउरो, उडुम्मि चउरो चउदिसिं पि॥ करे, पश्चात् जो प्रस्थापनावेला में उपस्थित हो गए, उनके लिए ३१९८. तिसु तिन्नि तारगाओ, उडुम्मि पाभातिए अदिढे वि। कालदानकरण किया जाता है और जो उपस्थित नहीं थे, उन्हें वासासु अतारगा उ, चउरो छण्णे निविट्ठो वि।। कालदान का अकरण होता है। ३१९१. सन्निहिताण वडारो, पट्ठविते पमादिणो दए कालं। ग्रीष्मकाल में तीन, शिशिर में पांच तथा वर्षाकाल में सात बाहि ठिते पडियरए, पविसति ताधे य दंडधरो॥ कनक काल का घात करते हैं। उल्का रेखा सहित और कनक जो समवाय में सम्मिलित नहीं होता, उसे वडार- भाग रेखा रहित होता है। वर्षा ऋतु में यदि तीन दिशाएं प्रकाशयुक्त हों नहीं दिया जाता। इसी प्रकार स्वाध्याय की प्रस्थापनवेला में जो तो प्राभातिक काल शुद्ध होता है। शेष तीन कालों (अर्धरात्रिक, प्रमादी मुनि सम्मिलित नहीं होते, उन्हें काल नहीं देना चाहिए। वैरात्रिक तथा प्राभातिक) में चारों दिशाएं प्रकाशयुक्त हों। ऋतुप्रस्थापना के पश्चात् कालग्राही बाहर काल की प्रतिचर्या करता बद्ध काल में चारों दिशाएं प्रकाशयुक्त हों तो चारों काल शुद्ध हैं। है, ग्राह्य-अग्राह्य का ध्यान रखता है और तब दंडधर स्वाध्याय यदि ऋतुबद्ध काल में तीन तारक दृश्य होते हैं तो प्रथम तीन काल की प्रस्थापना के लिए भीतर प्रवेश करता है। ग्रहण किए जा सकते है। तारक दृश्य न होने पर भी प्राभातिक ३१९२. पट्ठवित वंदिते वा, ताहे पुच्छंति किं सुतं भंते। काल ग्रहण किया जाता है। वर्षा ऋतु में चारों काल तारों के ते वि य कधेति सव्वं, जं जेण सुतं दिटुं वा॥ अदृश्य होने पर भी गृहीत होते हैं। वर्षाऋतु में आकाश अभ्राच्छन्न । दंडधर प्रवेश कर स्वाध्याय की प्रस्थापना करता है, गुरु होने पर भी चारों काल उपविष्ट अवस्था में गृहीत होते हैं। को वंदना करता है फिर साधुओं को पूछता है-भंते ! किसने क्या ३१९९. ठाणाऽसति बिंदूसु वि,गेण्हति विट्ठो वि पच्छिमं कालं। सुना? तब सभी साधु जिसने जो सुना या देखा, वह सारा कहते पडियरति बहिं एक्को, एक्को अंतट्ठितो गेण्हे ।। है। (यदि सभी कहें कि कुछ भी न सुना और न देखा तो काल स्थान के अभाव में बिंदुओं के गिरने से उपविष्ट अवस्था में शुद्ध है।) भी पश्चिमकाल अर्थात् प्राभातिक काल-ग्रहण किया जाता है। - ३१९३. एगस्स दोण्ह वा संकितम्मि कीरति न कीरते तिण्ह। एक कालग्राही बाहर रहकर काल-ग्रहण करता है और दूसरा सगणम्मि संकिते परगणं तु गंतुं न पुच्छंति॥ कालग्राही अंतःस्थित होकर काल-ग्रहण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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