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________________ २४६ सानुवाद व्यवहारभाष्य क्रम से जाए। अथवा गृहस्वामी जिसका गौरव करे उसे भेजा पर निर्जरा होती है। अतः वस्तु के आधार पर व्यवहारनय विपुल जाए। निर्जरा का विधान करता है। २६२९. तित्थगरे त्ति समत्तं, अधुणा पावयणनिज्जरा चेव। २६३५. लक्खणजुत्ता पडिमा, पासादीया समत्तऽलंकारा। वच्चंति दो वि समगं, दुवालसंगं पवयणं तु॥ पल्हायति जध वयणं, तह निज्जर मो वियाणाहि। तीर्थंकर द्वार यहां समाप्त हुआ। अब प्रवचन और जो जिनप्रतिमा लक्षणयुक्त, प्रासादीय-मन को प्रसन्न करने निर्जरा-इन दोनों को एक साथ प्रस्तुत करते हुए पहले प्रवचन वाली तथा समस्त अलंकारों से अलंकृत होती है, वह आंखों को को कहते हैं। प्रवचन है-द्वादशांग गणिपिटक। और मन को जितनी प्रह्लाद करने वाली होती है, उतनी ही निर्जरा २६३०. तं तु अहिज्जंताणं, वेयावच्चे उ निज्जरा तेसिं। होती है। कस्स भवे केरिसया, सुत्तत्थ जहोत्तरं बलिया॥ २६३६.सुतवं अतिसयजुत्तो सुहोचितो तध वि तवगुणुज्जुत्तो। जो द्वादशांग का अध्ययन करते हैं उनका वैयावृत्त्य करने जो सो मणप्पसादो, जायति सो निज्जरं कुणति।। से निर्जरा होती है। शिष्य ने पूछा-किसकी कैसी निर्जरा होती यह श्रुतवान् है, यह अतिशययुक्त है, यह सुखोचित होने है? आचार्य ने कहा-सूत्र और अर्थ में जो बलवान् होता है उसके पर भी तपस्या में तथा ज्ञान आदि गुणों में उद्युक्त रहता है-इस आधार पर निर्जरा होती है। प्रकार जिसके मन में जितनी मनःप्रसत्ति होती है, उतनी ही वह २६३१. सुत्तावासगमादी, चोद्दसपुवीण तह जिणाणं च। निर्जरा करता है। भावे सुद्धमसुद्धे, सुत्तत्थे मंडली चेव॥ २६३७. निच्छयतो पुण अप्पे, जस्स वि वत्थुम्मि जायते भावो। आवश्यक आदि सूत्रों से लेकर चौदह पूर्वो तक के सूत्रों के तत्तो सो निज्जरगो, जिण-गोतम-सीहआहरणं॥ धारक मुनियों के वैयावृत्त्य के यथोत्तर महान् निर्जरा होती है। निश्चयनय के अनुसार जिस अल्पगुणवाली वस्तु में भी यही तथ्य अर्थ-धारक मुनियों के विषय में है। इसी प्रकार तीव्र शुभ भाव होता है वह भी महानिर्जरक होता है। यहां जिनअवधिजिन आदि जिनों के विषय में है। वैयावृत्त्य करने वाले की गौतम-सिंह का आहरण हैशुद्ध अथवा अशुद्ध भावना के अनुसार निर्जरा होती है। सूत्रार्थ के २६३८. सीहो तिविट्ठ निहतो, भमिउं रायगिह कविलबडुग त्ति। युगपत् चिंतन में मंडलीक सूत्रार्थ के आधार पर विचार करना जिणवीरकहणमणुवसम, गोतमोवसम दिक्खा य॥ चाहिए।' त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में भगवान महावीर ने सिंह को मार २६३२. पावयणी खलु जम्हा, आयरिओ तेण तस्स कुणमाणो। डाला। सिंह के जीव में यह अधति हो गई कि मैं मेरे से हीन महतीय निज्जराए, वट्टति साधू दसविहम्मि॥ शक्ति वाले से मारा गया। यह मेरा पराभव है। उस समय गौतम प्रवचन के कारण आचार्य प्रावचनिक होते हैं। इसलिए का जीव त्रिपृष्ठ वासुदेव का सारथि था। उसने सिंह को उनकी वैयावृत्त्य करने वाला साधु महान् निर्जरा में वर्तन करता अनुशासित करते हुए कहा-अधृति मत करो। तुम पशुसिंह हो। है। इसी प्रकार दस प्रकार का वैयावृत्त्य महान् निर्जरा का हेतु है। नरसिंह से मारे जाने पर तुम्हारा कैसा पराभव!। इस प्रकार २६३३. जारिसगं जं वत्थु, सुतं तिण्हं व ओहिमादीणं। अनुशासित होता हुआ वह सिंह मर गया। वह संसार में भ्रमण तारिसओ च्चिअ भावो, उप्पज्जति वत्थुतो तम्हा॥ करता हुआ, चरम तीर्थंकर महावीर के भव के समय राजगृह नगर जो वस्तु जैसी होती है, जिसका जितना श्रुत होता है, में कपिल ब्राह्मण के घर में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। एक बार अवधिज्ञानी आदि तीन प्रकार के जिनों में जो विशेष है-उन । भगवान् राजगृह में पधारे। वह भगवान के दर्शनार्थ समवसरण में वस्तु. श्रुत तथा विशेष के अनुसार भाव उत्पन्न होते हैं और आया और 'धम्म-धम्म' करने लगा। उसको उपशांत करने के तदनुसार निर्जरा होती है। लिए भगवान् ने गौतम को भेजा। गौतम उसके पास गए और २६३४. गुणभूइडे दव्वे, जेण य मत्ताहियत्तणं भावे। उपदेश दिया। उन्होंने कहा-ये महान् आत्मा तीर्थंकर हैं। इनके इति वत्थूओ इच्छति, ववहारो निज्जरं विउलं॥ प्रति जो द्वेष रखता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है। वह उपशांत गुणभूयिष्ठ (अनेक गुणों से युक्त) द्रव्य में जिन कारणों से हो गया। गौतम ने उसको दीक्षित कर दिया। भगवान महावीर की भावों की-परिणामों की मात्रा का आधिक्य होता है उसी आधार अपेक्षा गौतम के प्रति कपिल-पुत्र का गुरु-परिणाम पैदा हुआ। १. आवश्यक सूत्रधर की वैयावृत्त्य करने वाले से दसवैकालिक सूत्रधर दायक होता है। सूत्रधर के वैयावृत्त्य करने से अर्थधर का वैयावृत्त्य की वैयावृत्त्य करने वाले के महान् निर्जरा होती है। इस प्रकार महान् निर्जरा का हेतु बनता है। निशीथ, कल्प तथा व्यवहार उत्तरोत्तर सूत्रधरों के वैयावृत्त्य करने से महानिर्जरा होती है। त्रयोदश सूत्रार्थधरों के वैयावृत्त्य से कालिकश्रुतधर का वैयावृत्त्य महान् निर्जरा पूर्वधर के वैयावृत्त्य से चतुर्दश पूर्वधर का वैयावृत्त्य महान् निर्जरा का हेतु है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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