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छठा उद्देशक
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उसके महान् निर्जरा हुई।
२६४४. सुत्तस्स मंडलीए, नियमा उडेति आयरियमादी। २६३९. सुत्ते अत्थे उभए, पुव्वं भणिता जहोत्तरं बलिया।
मोत्तूण पवायंतं, न उ अत्थे दिक्खण गुरुं पि॥ मंडलिए पुण भयणा, जदि जाणति तत्थ भूयत्थं॥ सूत्रमंडली में वाचना देते हुए आचार्य, उपाध्याय आदि
सूत्र, अर्थ और तदुभय-इन तीनों में निर्जरा यथोत्तर प्राघूर्णक आदि आने पर नियमतः उठते हैं, अभ्युत्थान करते हैं। बलवती होती है, यह पहले कहा जा चुका है। मंडली में पुनः अर्थमंडली में केवल प्रवाचक को छोड़कर किसी के आने पर नहीं उसकी भजना है, विकल्पना है। यदि मंडली में भूतार्थ ।उठते फिर चाहे वे दीक्षागुरु भी क्यों न हो? (सद्भूतार्थ) जाना जाता है तो महानिर्जरा होती है। (यदि वह २६४५. पतिलीलं करेमाणी, नोट्ठिता सालवाहणं। वैयावृत्त्यकर जानता है कि यह अधस्तन सूत्रपाठक ज्ञान आदि
पुढवी नाम सा देवी, सो य रुट्ठो तधिं निवो॥ गुणों में अधिकतर है तो उसका वैयावृत्त्य करना महान् निर्जरा का २६४६. ततो णं आह सा देवी, अत्थाणीए तवारिहा। हेतु बनता है आदि।)
दासा वि सामियं एतं, नोटुंति अवि पत्थिवं ॥ २६४०. अत्थो उ महिद्धीओ, कडकरणेणं घरस्स निप्फत्ती। २६४७. तं वावि गुरुणो मोत्तुं, न वि उद्वेसि कस्सति। अब्भुट्ठाणे गुरुगा, रणो याणे य देवी य॥
न ते लीला कया होती, उट्ठेती हं स तोसितो॥ केवल सूत्रधर से अथवा केवल अर्थधर से सूत्रार्थधर सातवाहन की रानी का नाम था पृथिवी। एक बार राजा महर्द्धिक होता है क्योंकि वह कृतकरण होता है। इस विषय में कहीं बाहर गया। रानी अन्य रानियों से परिवृत होकर दृष्टांत है-घर की निष्पत्ति। अभ्युत्थान में चार गुरुमास का आस्थानमंडप में राजा का वेश पहनकर बैठ गई और पतिलीलाप्रायश्चित्त आता है। राजा के निर्गमन, तथा देवी का दृष्टांत। राजा की तरह प्रवृत्ति करने लगी। अचानक राजा आ गया। रानी (व्याख्या आगे)
अपने आसन से नहीं उठीं। उसके न उठने पर अन्य रानियां भी २६४१. आराधितो णरवती, तीहि उ पुरिसेहि तेसि संदिसति। नहीं उठी। यह देखकर राजा रुष्ट हो गया। राजा ने रानी को इस
अमुगपुरि सतसहस्सं, घरं च एतेसि दातव्वं॥ विपरीत व्यवहार के लिए कहा। तब रानी ने कहा-देव! आपकी २६४२. पट्टग घेत्तूण गतो, उंडियबितिओ उ ततियओ उभयं। आस्थानिका में बैठे हुए दास भी नाथ होते हैं। वे अपने स्वामी
निप्फलगा दोण्णि तहिं, मुद्दा पट्टो य सफलो उ॥ राजा को देखकर भी नहीं उठते। यह आपके आस्थानिका का - तीन व्यक्तियों ने एक राजा की आराधना की। राजा ने प्रभाव है। देव! आप भी जब आस्थानिका में उपविष्ट होते हैं तब संतुष्ट होकर तीनों को अपने आयुक्त के नाम यह संदेश लिखकर गुरु को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति के आने पर नहीं उठते। दिया कि अमुकपुर में प्रत्येक को एक-एक सुंदर घर और एक-एक राजन! यदि मैं आपकी लीला नहीं करती तो मैं अवश्य उठती। लाख दीनार देना है। एक व्यक्ति इस संदेश को पट्टक पर राजा देवी के वचनों से संतुष्ट हो गया। (अर्थमंडली में उपविष्ट लिखाकर ले गया। दूसरा व्यक्ति राजमुद्रा ले गया। तीसरा व्यक्ति आचार्य तीर्थंकर तुल्य होते हैं। वे किसी के आने पर अभ्युत्थान पट्ट पर लिखाकर तथा राजमुद्रांकित-दोनों से सन्नद्ध होकर नहीं करते।) गया। प्रथम दोनों असफल रहे और तीसरा जो पट्ट तथा २६४८. कधेतो गोयमो अत्थं, मोत्तुं तित्थगरं सयं। मुद्रा-दोनों से युक्त था, वह सफल रहा। उसको सुंदर घर और
न वि उठेति अन्नस्स, तग्गतं चेव गम्मति॥ एक लाख दीनार प्राप्त हो गए।
गौतम स्वामी जब अर्थ की वाचना देते तब तीर्थंकर (आयुक्त के पास तीनों उपस्थित हुए। आयुक्त ने प्रथम से भगवान महावीर को छोड़कर अन्य किसी के आने पर स्वयं नहीं कहा, पट्ट पर संदेश लिखा है, पर मुद्रा नहीं है। कैसे दूं? दूसरे से उठते। वर्तमान में उनके द्वारा किए गए का हम अनुसरण कर रहे कहा-राजमुद्रा है पर नहीं जानता कि क्या देना है। दोनों असफल हैं। रहे। तीसरा उभययुक्त था। वह सफल हो गया।)
२६४९. सोतव्वे उ विही इणमो, अवक्खेवादि होति नायव्वो। २६४३. एवं पट्टगसरिसं, सुत्तं अत्थो य उंडियत्थाणे।
वक्खेवम्मि य दोसा, आणादीया मुणेतव्वा।। उस्सग्गऽववायत्थो, उभयसरिच्छो य तेण बली।। श्रवणविधि यह है कि उसमें कोई व्याक्षेप न हो। व्याक्षेपों इस प्रकार पट्टगसदृश होता है सूत्र और अर्थ होता है को जानना चाहिए। व्याक्षेप होने पर आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व राजमुद्रा के स्थानीय-सदृश। सूत्रार्थ होता है उत्सर्गापवादस्थ। आदि दोष होते हैं। वह उभयतुल्य अर्थात् पट्टग और राजमुद्रा तुल्य होता है, २६५०. काउस्सग्गे वक्खेवया य विकधा विसोत्तिया पयतो। इसलिए वह बलवान् होता है।
उवणय वाउलणादि य, अक्खेवो होति आहरणे॥ Jain Education International
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