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सानुवाद व्यवहारभाष्य
२६५१. आरोवणा परूवण, उग्गह तह निज्जरा य वाउलणा। अथवा पृच्छा आदि से पौरुषीकाल भी बीत जाता है।
एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु पडिकुटुं॥ २६५७. भासओ सावगो वावि, तिव्वसंजायमाणसो।
कायोत्सर्ग में, व्याक्षेपता, विकथा, विस्रोतसिका, प्रयत, लभंतो ओहिलंभादी, जधा मुडिंबगो मुणी।। उपनय, व्याकुलता आदि, आक्षेप तथा आहरण।
भाषक और श्रोता दोनों विशिष्ट अर्थों का अवगाहन करते आरोपणा, प्ररूपणा, अवग्रह तथा निर्जरा, व्याकुलता-इन हुए उसी में तीव्रता से एकाग्र हो जाते हैं। उस स्थिति में यदि कारणों से अभ्युत्थान का प्रतिषेध किया गया है। (दोनों गाथाओं अभ्युत्थान आदि व्याक्षेप न होता तो अवधिज्ञान आदि विशिष्ट की व्याख्या अगली गाथाओं में।)
लब्धियां प्राप्त हो सकती थीं। जैसे मुडिम्बक मुनि को......। २६५२. उच्चारियाए नंदीए, वक्खेवे गुरुओ भवे। (मुनि मुडिम्बक और आचार्य सुहिडिम्बक शुभध्यान में
अप्पसत्थे पसत्थे य, दिर्सेतो हत्थिलावगा॥ लीन थे। वे अवधि आदि की प्राप्ति कर लेते, यदि पुष्यमित्र उनके . (अनुयोग का प्रारंभ करने के निमित्त कायोत्सर्ग करने में) ध्यान में व्याघात उपस्थित नहीं करता। सभी साधु-साध्वी नंदी के उच्चारण के पश्चात् जो अभ्युत्थान आदि के द्वारा अत्यंत व्याकुल हो गए थे अतः पुष्यमित्र ने ध्यान में व्याघात व्याक्षेप प्रस्तुत करता है उसको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त किया। आता है। अप्रशस्त और प्रशस्त व्याक्षेप के विषय में हस्ती और २६५८. आरोवणमक्खेवं, व दाउकामो तहिं तु आयरिओ। लावक (धान काटने वाले) का दृष्टांत है।
वाउलणाए फिट्टति, उग्गहिउमणो न ओगिण्हे ।। २६५३. जह सालिं लुणावेतो, कोई अत्यारितेहिं तु। अर्थमंडली में आचार्य आरोपणा प्रायश्चित्त की प्ररूपणा
सेयं हत्थिं तु दावेति धाविता ते य मग्गतो॥ करना चाहता है। अभ्युत्थान आदि की व्याकुलता से वह विस्मृत २६५४. न लूओ अध साली उ, वक्खेवेण य तेण उ।। हो जाता है, छूट जाता है। जो प्रायश्चित्त लेना चाहता है, वह
___ वक्खेवे रयाणं तु, पोरिसी एव भज्जति॥ अभ्युत्थान आदि की व्याकुलता से उसको ग्रहण नहीं करता।
एक कृषक आने शालिक्षेत्र में शालि काटने के लिए कुछ २६५९. एगग्गो उवगिण्हति, वक्खिप्पंतस्स वीसुइं जाति। अस्तारिकाओं (मूल्य लेकर धान काटने वाले कर्मकरों) की
इंदपुरइंददत्ते अज्जुणतेणे य दिटुंतो।। नियुक्ति की। एक दिन वहां श्वेत हाथी आ गया। कृषक ने उन एकाग्रता में ही प्रायश्चित्त अवगृहीत होता है। व्याक्षिप्त कर्मकरों को हाथी दिखाया। वे उसके पीछे दौड़े। उस व्याक्षेप से व्यक्ति के वह विस्मृत हो जाता है। इसमें इंद्रपुर पत्तन के इंद्रदत्त के उन्होंने शालि की कटाई नहीं की। इसी प्रकार व्याक्षेप में रत पुत्रों का दृष्टांत तथा अर्जुनचोर का दृष्टांत वक्तव्य है। मुनियों के पौरुषीभंग हो जाता है।
२६६०. एते चेव य दोसा, अब्भुट्ठाणे वि होति नातव्वा। २६५५. विकधा चउम्विधा वुत्ता, इंदिएहिं विसोत्तिया।
नवरं अब्भुट्ठाणं, इमेहि तिहि कारणेहिं तु॥ अंजलीपग्गहो चेव, दिट्ठी बुद्धवजुत्तया। ये ही दोष अभ्युत्थान आदि में भी होते हैं, ऐसा जानना (५०,५१वें श्लोक के संदर्भ में) विकथा के चार प्रकार कहे चाहिए। इन तीन कारणों से अभ्युत्थान करना चाहिएगए हैं-स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा। इंद्रियों की २६६१. पगतसमत्ते काले, अज्झयणुद्देस अंगसुतखंधे। विस्रोतसिका, अंजलिप्रग्रह, गुरुमुख पर दृष्टि ,
एतेहि कारणेहिं, अब्भुट्ठाणं तु अणुओगो॥ बुद्ध्युपयुक्तता.........(इनकी व्याख्या आगे की गाथाओं में।)
प्रकृत-प्रकरण के समाप्त होने पर, काल के समाप्त होने २६५६. नस्सए उवणेतो सो, अन्नहा वोवणिज्जति। पर, अध्ययन, उद्देशक, अंग, श्रुतस्कंध के समाप्त होने पर-इन
नातं वागरणं वा वि, पुच्छा अद्धा च भस्सति॥ सब कारणों से अभ्युत्थान अनुयोग होता है।
अभ्युत्थान आदि से व्याकुलता होती है। उससे वक्ता द्वारा २६६२. कप्पम्मि दोन्नि पगता, पलंबसुत्तं च मासकप्पे य। उपदर्शित उपनय अन्यथा गृहीत होता है और वह विस्मृत हो
दो चेव य ववहारे, पढमे दसमे य जे भणिता॥ जाता है, नष्ट हो जाता है। कहा गया उदाहरण, की गई व्याख्या कल्पाध्ययन के दो प्रकृत हैं-प्रलंबसूत्र और मासकल्प
१. (क) महाराज इंद्रदत्त के अनेक पुत्र थे। वे सभी कलाचार्य के पास
कलाएं सीखने लगे। किंतु प्रमाद और अन्यान्य व्याक्षेपों के कारण वे बहुत अल्प मात्रा में सीख पाए और जो कुछ सीखा था वह भी भूल गए। वे राधावेध करने में सफल नहीं हुए। (ख) अर्जुनक चोर था। अगडदत्त उसको जीत नहीं पा रहा था।
अगडदत्त ने तब एक उपाय सोचा। उसने अपनी रूपवती भार्या को, विभूषित- अलंकृत कर रथ के अग्रभाग पर बिठा दिया। दोनों में युद्ध प्रारंभ हुआ। अर्जुनक चोर स्त्रीरूप में व्याक्षिप्त हो गया। वह युद्ध करना भूल गया और तब अगडदत्त ने उसे मार डाला।
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