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________________ छठा उद्देशक २४५ जो राजा सापेक्ष होता है वह पहले कुमार आदि को भेजकर २६२३. बहुया तत्थऽतरंता,अहव गिलाणस्स सो परं लभति। शत्रुसेना का क्षय करता है। विजय प्राप्त न होने पर स्वयं जाकर एमेव य आदेसे, सेसेसु विभासबुद्धीए॥ युद्ध लड़ता है। यही उपमा गच्छ पर भी लागू होती है। गच्छ में अनेक साधु ग्लान हैं। वे गोचरचर्या में नहीं जा २६१८. अद्धाणकक्खडाऽसति, गेलण्णादेसमादिएसुं तु। सकते अथवा ग्लान के लिए प्रायोग्य द्रव्य आचार्य को ही प्राप्त हो संथरमाणे भइतो, हिंडेज्ज असंथरंतम्मि। सकता है तब आचार्य स्वयं गोचरी के लिए जाते हैं। इसी प्रकार इन कारणों से आचार्य भिक्षार्थ जा सकते हैं-मार्ग में, प्राघूर्णकों के लिए तथा शेष मुनियों-बाल, वृद्ध, असहाय के लिए कर्कश क्षेत्र में, सहयोगी के न होने पर, ग्लान, प्राधूर्णक, बाल, आचार्य कब-कैसे गोचरी के लिए घूमते हैं-इसकी विभाषा वृद्ध, असह-इनके लिए प्रायोग्य भोजन-पान लाने के लिए, अपनी बुद्धि से करनी चाहिए। अथवा इनके लिए लाया गया भोजन-पान पर्याप्त न होने पर। यदि २६२४. अब्भुज्जयपरिकम्म, कुणमाणं जा गणं न वोसिरति। पर्याप्त लाभ हो जाता है तो कभी गोचरचर्या में जाते हैं और कभी ताव सयं सो हिंडति, इति भयणा संथरंतम्मि। नहीं। आचार्य जब तक अभ्युद्यतविहार परिकर्म करते हुए गण २६१९. पंच वि आयरियादी, अच्छंति जहन्नए वि संथरणे।। का व्युत्सर्ग नहीं करते तब तक वे स्वयं गोचरी करते हैं। ___एवं पिऽसंथरंते, सयमेय गणी अडति गामे॥ संस्तरण की स्थिति में इसकी भजना है-विकल्प है। (संस्तरण के तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और २६२५. अद्धाणादिसुवेहं, सुहसीलत्तेण जो करेज्जाही। उत्कृष्ट)। जघन्य संस्तरण में भी आचार्य आदि पांचों (आचार्य, गुरुगा व जं च जत्थ व, सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक) स्थित रहते हैं। मार्ग में जाते हुए अथवा कर्कश आदि क्षेत्रों में गोचरी जाने असंस्तरण की स्थिति में गणी स्वयं ही गांव में भिक्षा के लिए में आचार्य यदि सुखशीलत्व के कारण उपेक्षा करते हैं तो उनको जाते हैं। प्रायश्चित्त आता है चार गुरुमास का। तथा परितापना आदि में २६२०. मंडलगतम्मि सूरे, उत्तिण्णा जाव पट्ठवणवेला।। जहां जो प्रायश्चित्त निर्दिष्ट है वह प्राप्त होता है। इसलिए ता एंति भुत्त सण्णागता च उक्कोससंथरणे॥ सर्वप्रयत्न से आचार्य को गोचरी में तत्पर रहना चाहिए। नभोमंडल के मध्य में गए हुए सूर्य के समय अर्थात् २६२६. असती पडिलोमं तू, सग्गामे गमण-दाणसड्डेसु। मध्यान्ह वेला में भिक्षा के लिए वसति से निकलते हैं और यावत् पेसेति बितियदिवसे, आवज्जति मासियं गुरुयं॥ तीसरे प्रहर में स्वाध्याय की प्रस्थापनावेला में वसति में लौटते संस्तरण के अभाव में प्रतिलोम विधि अर्थात् गोचरी है-यह उत्कृष्ट संस्तरण है। अथवा जो खा-पीकर संज्ञाभूमी में गणावच्छेदक से प्रारंभ करे-(गणावच्छेदक, स्थविर, प्रवर्तक, चले गए हैं-उस समय तक का काल उत्कृष्ट संस्तरण है। उपाध्याय।) इतने पर भी यदि पर्याप्त प्राप्त न हो तो अपने ग्राम में २६२१. सण्णाउ आगताणं, च पोरिसी मज्झिमं हवति एयं। आचार्य दानश्राद्ध कुलों में भिक्षाटन करे। किसी मुनि ने किसी विसुयावितमत्थदिणे, समतिच्छंते जहण्णं तु॥ घर में ग्लानप्रायोग्य द्रव्य की याचना की पर नहीं मिला। दूसरे मध्यान्ह में गोचरचर्या के लिए वसति से निकले, घूमकर दिन उसी घर में उसी साधु को वहां भेजते हैं तो गुरुमासिक वसति पर आकर, भोजन से निवृत्त होकर, संज्ञाभूमी से लौटने प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (इसलिए उसी घर में प्रतिलोम विधि से पर यदि चतुर्थ प्रहर प्रारंभ हो जाता है तो वह मध्यम संस्तरण है। मुनियों को भेजना चाहिए।) संज्ञाभूमी से आकर भी यदि विसूचिकादि के कारण सूर्यास्तवेला २६२७. गणावच्छेए पुव्वं, ठवणकुलेसुं च हिंडति सगामे। भी हो गई हो तो वह जघन्य संस्तरणकाल है। एवं थेरपवत्ती, अभिसेए गुरुगपडिलोमं ॥ २६२२. अद्धाणेऽसंथरणे, अकोवियाणं य विकरण पलंबे। पहले गणावच्छेदक अपने ग्राम में स्थापनाकुलों में जाए। एमेव कक्खडम्मि वि, असति त्ति सहायगा नत्थि॥ फिर प्रतिलोम विधि से जाए। स्थविर, प्रवर्तक, अभिषेक आचार्य गच्छ को साथ ले सार्थ के साथ मार्ग में जा रहे हैं। उपाध्याय और फिर गुरु-आचार्य। असंस्तरण की स्थिति में अथवा अकोविद सहायकों में अथवा २६२८. ओभासिय पडिसिद्धं, तं चेव न तत्थ पट्ठवेज्जा तु। सार्थ में बिना टुकड़े किए हुए प्रलंब-वनस्पति विशेष की प्राप्ति की पडिलोमं गणिमादी, गोरव्वं जत्थ वा कुणति ।। स्थिति में आचार्य स्वयं भिक्षा के लिए जाते हैं। इसी प्रकार किसी मुनि ने किसी द्रव्य की एक घर में याचना की। कर्कश क्षेत्र में भी इन्हीं तीन कारणों से तथा सहायकों के न होने गृहस्वामी ने प्रतिषिद्ध कर दिया। दूसरे दिन उसी घर में उसी पर आचार्य स्वयं भिक्षा के लिए जाते हैं। मुनि को न भेजा जाए। किंतु पूर्वोक्त गणावच्छेदक के प्रतिलोम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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