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सानुवाद व्यवहारभाष्य
प्रयोजनवश आचार्य यदि भिक्षाचर्या के लिए गए हों तो भी २६११. एतस्स पभावेणं, जीवा अम्हे त्ति एव नाऊणं। राजा के पूछने पर अन्य कार्य की बात कहनी चाहिए। आचार्य के
अण्णे उ समल्लीणा, विज्झविते तेसि सो तुट्ठो॥ लौट आने पर प्रथमालिका तथा नियोग स्वच्छ वस्त्र आदि को कुछ कृषकों ने सोचा-इस कौटुम्बिक के प्रभाव से ही हम लाकर, चरण प्रक्षालन कर, फिर प्रथमालिका करनी चाहिए। जीवित हैं-यह सोचकर वे आग बुझाने के लिए तत्पर हो गए। हाथ-पैर प्रक्षालन आदि सभी कार्यों से निवृत्त होकर आचार्य आग बुझ जाने पर वह कौटुंबिक उन पर तुष्ट हो गया। आश्वस्त होकर वसति में प्रवेश करते हैं और पूर्वरचित निषद्या २६१२. जे ऊ सहायगत्तं, करेसु तेसिं अवद्धियं दिन्नं । पर बैठ जाते हैं। फिर शिष्य उनके चरणों के आसपास इस प्रकार दद्धं ति न दिण्णितरे, य कासगा दुक्खजीवी य॥ बैठ जाते हैं कि राजा भी देखकर चकित हो जाता है।'
जिन्होंने आग बुझाने में सहयोग दिया उनको बिना वृद्धि २६०७. सीसा य परिच्चत्ता, चोदगवयणं कुटुंबि झामणया। की शर्त किए धान्य दिया। जिन्होंने सहयोग नहीं दिया, वे खेती
दिÉतो दंडिएण, सावेक्खे चेव निरवेक्खे॥ किए बिना दुःखजीवी हो गए। शिष्य परित्यक्त, चोदकवचन, कुटुंबी के घर का प्रदीपन, २६१३. आयरियकुडुंबी वा, सामाणियथाणिया भवे साधू। दृष्टांत, दंडिक, सापेक्ष तथा निरपेक्ष आचार्य। (यह द्वारगाथा है
वाबाधअगणितुल्ला, सुत्तत्था जाण धन्नं तु॥ व्याख्या आगे)
कुटुम्बीतुल्य हैं आचार्य और सामान्य कृषक स्थानीय हैं २६०८. वातादीया दोसा, गुरुस्स इतरेसि किं न ते होंति ?। साधु। आचार्य के भिक्षाटन में वात आदि की बाधा है अग्नितुल्य
_ रक्खप्प सिस्सचाए हिंडणतुल्ले असमताया। और सूत्रार्थ है धान्यतुल्य।
गोचरचर्या में घूमने से वात आदि दोष गुरु के होते हैं तो २६१४. एमेव विणीयाणं, करेंति सुत्तत्थसंगहं थेरा। क्या दूसरों के वे दोष नहीं होते? स्वयं की रक्षा की जाती है, ___ हावेंति उदासीणे, किलेसभागी य संसारे। शिष्यों की परवाह नहीं की जाती। दोनों का घूमना तुल्य है। क्या कौटुंबिक दृष्टांत के अनुसार स्थविर-आचार्य विनीत यह असमता नहीं है?
शिष्यों को सूत्रार्थ देते हैं। जो आचार्य के प्रति उदासीन होते हैं, २६०९. दसविधवेयावच्चे, निच्चं अब्भुट्ठिया असढभावा। उनकों सूत्रार्थ नहीं देते। उनके सूत्रार्थ की हानि होती है। वे संसार
सीसा य परिच्चत्ता, अणुज्जमंताण दंडो य॥ में क्लेश के भागी होते हैं। शिष्य दशविध वैयावृत्त्य में सदा असठभाव से अभ्युत्थित २६१५. उप्पण्णकारणे पुण, जइ सयमेव सहसा गुरू हिंडे। रहते हैं। उन शिष्यों को भिक्षाटन आदि के लिए भेजने पर वे
अप्पाण गच्छमुभयं, परिचयती तत्थिमं नायं ।। वैयावृत्त्य से अनुद्यत हो जाते हैं। वे यदि वैयावृत्त्य में अनुद्यत रहते कारण उत्पन्न होने पर गुरु स्वयं ही सहसा भिक्षाचर्या के हैं तो दंड के भागी होते हैं।
लिए घूमते हैं तो वे स्वयं तथा गच्छ-दोनों का परित्याग कर देते २६१०. वड्डी धन्नसुभरियं, कोट्ठारं डज्झए कुडुबिस्स। हैं-दोनों को हानि पहुंचाते हैं। इस प्रकरण में यह उदाहरण है
किं अम्ह मुहा देती, केई तहियं न अल्लीणा॥ २६१६. सोउं परबलमायं, सहसा एक्काणिओ उ जो राया। एक कौटुम्बिक था। वह आवश्यकतावश दूसरे कृषकों को
निग्गच्छति सो चयती, अप्पाणं रज्जमुभयं च॥ धान्य, कालांतर में उसकी वृद्धि कर लौटाने की शर्त पर उधार एक राजा निरपेक्ष था। उसने शत्रु सेना के आगमन की देता था। इसके आधार पर उसके कोष्ठागार सुभृत हो गए। एक बात सुनकर सहसा एकाकी शत्रुसेना का सामना करने चला बार उसके एक कोष्ठागार में आग लग गई। कुछ लोग उसको जाता है तो वह स्वयं को और राज्य को-दोनों को गवां देता है। बुझाने यह कहते हुए नहीं आए कि क्या यह कौटुम्बिक हमें मुफ्त १६१७. सावेक्खो पुण राया, कुमारमादीहि परबलं खविया। में धान्य देता है कि हम उसको बुझाने के लिए तत्पर हों।
अजिते सयं पि जुज्झति, उवमा एसेव गच्छे वि॥
१. इन दोनों गाथाओं का तात्पर्यार्थ इस प्रकार है
वस्त्र पहनकर, भिक्षापात्र अन्य मुनियों को संभलाकर. इस विशेष आचार्य भिक्षा के लिए गए हों। राजा आदि दर्शनार्थ आकर वेश में वसति में प्रवेश कराए कि राजा भी दूर से ही जान ले कि ये आचार्य के विषय में पूछने पर प्रतिपत्तिकुशल मुनि भिक्षाचर्या की आचार्य हैं। आचार्य के वसति में प्रविष्ट हो जाने पर पादपोंछन लेकर बात न कहें, अन्य प्रयोजन बताए। राजा यदि प्रतीक्षा करने के लिए मुनि तैयार खड़े रहें। आचार्य के पूर्वरचित निषद्या पर बैठ जाने पर। वहीं ठहर जाएं तो वे कुशल मुनि मनोज्ञ प्रथमालिका तथा सुंदर कुछ मुनि पाद- प्रक्षालन के लिए तत्पर रहते हैं। पादप्रक्षालन के चोलपट्ट, लेकर आचार्य के पास जाकर राजा की बात कहे। आचार्य पश्चात् सभी मुनि आगे-पीछे, आसपास में बद्धांजलि हो बैठ जाते
हाथ-पैर धोकर, प्रथमालिका तथा पानक से निवृत्त होकर विशेष हैं। राजा यह सारा दृश्य देखकर चकित रह जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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