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सानुवाद व्यवहारभाष्य लक्ष्मी अन्य पुरुष में संक्रांत न हो जाए। तुम इस कुल के प्रधान २४६५. दीसंतो वि हु नीया, पव्वयहिययं पि संपकप्पंति। हो। यह बल हस्ती, अश्व आदि तथा वीर्य-आंतरिक उत्साह
कलुणकिवणाणि किं पुण, कुणमाणा एगसेज्जाए। तुम्हारे अधीन है। धर्म तो बाद में भी किया जा सकेगा। हम पद श्रमण के ज्ञातविधि में जाने पर दृश्यमान स्वजन भी उस के लिए प्रार्थना करते हैं। तुम गृहनायक का पद लेकर हमें पर्वतहृदय श्रमण को संयम से प्रकंपित कर देते हैं। एक ही वसति अनुगृहीत करो।
में वे स्वजन करुण-कृपण रोदन करते हुए श्रमण को संयमच्युत २४५९. एवं कारुण्णेणं इड्डीय तु लोभितो तु सो तेहिं। कर देते हैं।
ववरोविज्जति ताधे, संजमजीवाउ सो तेहिं।। २४६६. अक्कंदट्ठाणठितो, तेसिं सोच्चा तु नायगादीणं। इस प्रकार स्वजनों के कारुण्य और ऋद्धि से प्रलुब्ध होकर
पुव्वावरत्त रोवण, जाय ! अणाहा वयं कोइ। वह श्रमण संयमजीवन से व्यपरोपित हो जाता है, च्युत हो जाता
उस आक्रंदनस्थान में स्थित साधु पूर्वरात्र और अपररात्र में
ज्ञातक आदि का करुण-कृपण रुदन कि हम अनाथ हो जायेंगे, २४६०. अविभवअविरेगेणं, विणिग्गतो पच्छ इड्डिमं जातं।
यह सुनकर कोई मुनि प्रव्रज्या को छोड़ देता है।
२४६७. महिलाए समं छोढुं, ससुरेणं ढक्कितो तु उव्वरए। कदाचित् वह श्रमण दरिद्रता के कारण श्रमण बना हो
नातविधिमागतं वा, पेल्ले उब्भामिगसगाए।। अथवा संपत्ति का बंटवारा न किए जाने पर घर से निकल कर
साधु को आया जानकर श्वसुर अपनी पुत्री के साथ उस प्रवजित हो गया हो। उसके श्रमण बन जाने पर स्वजन ऋद्धिमान
साधु को एक अपवरक में डालकर उसको ढंक देता है। इस प्रकार
उपसर्गित होकर वह साधु संयम को छोड़ देता है। ज्ञातविधि से हो गए हों। उस श्रमण को अपने मध्य देखकर स्वजन स्थाली को रत्नों से पूर्णरूप से भरकर उसके सामने उपहृत करते हैं और
आयात साधु को देखकर स्वजन वर्ग उसकी उद्घामिक भार्या से
प्रव्रज्या त्याग की प्रेरणा दिलाते हैं। प्रार्थना करते हैं-यह उपहार स्वीकार करो। २४६१. तस्स वि दवण तयं,अह लोभकली ततो उसमुदिण्णो।
२४६८. मोहुम्मायकराई, उवसग्गाइं करेति से विरहे।
भज्जा जेहिं तरुविव, वातेणं भज्जते सज्जं॥ वोरवितो संजमाउ, एते दोसा हवंति तहिं।।
उस की विरह से व्यथित भार्या मोहोन्मादकारक उस रत्नथाल को देखकर साधु के मन में लोभ की कली
(आलिंगन आदि) उपसर्ग करती है। उनसे वह मुनि हवा के झोंके समुदीर्ण होती है और वह संयम से व्यपरोपित-च्युत हो जाता
से वृक्ष की भांति तत्काल टूट जाता है, संयम से त्यक्त हो जाता है। ये दोष ज्ञातविधिगमन के कारण प्राप्त होते हैं। २४६२. अधवा न होज्ज एते, अण्णे दोसा हवंति तत्थेमे।
२४६९. कइवेण सभावेण व, भयओ भोइं पहम्मि पंतावे। जेहिं तु संजमातो, चालिज्जति सुट्ठितो ठियओ॥
हिययं अमुंडितं मे, भयवं पंतावए कुवितो॥ अथवा उपरोक्त दोष न भी हों किंतु वहां ये दोष होते हैं। इन
पत्नी स्वभाव से अथवा कपट से अथवा भय से भृतक के दोषों से सुस्थितस्थितिवाला मुनि भी संयम से चालित हो जाता
साथ चली गई। मार्ग में मुनि बने अपने पति को देखकर रोती हुई
बोली-भगवन् ! मेरा हृदय अभी भी अमुंडित है। यह सुनकर वह २४६३. अक्कंदठाणससुरे, उव्वरए पेल्लणाय उवसग्गे।
पतिरूप मुनि कुपित होकर उस भृतक पर प्रहार कर सकता है। पंथे रोवण भतए, ओभावण अम्ह कम्मकरा॥
२४७०. कम्महतो पव्वइतो, भयओ एयम्ह आसि मा वंद। २४६४. छाघातो अणुलोमे, अभिजोग्ग विसे सयं च ससुरेणं।
उब्भामकए वोहे, छाघातं तस्स सा देति॥ पंतवण बंधळंभण, तं वा ते वाऽतिवायाए।।
प्रव्रज्या से पूर्व यह हमारा कर्मकर था। कर्मभग्न होकर भय इन दोषों के ग्यारह द्वार हैं-१. आक्रंदनस्थान २. श्वसुर
से यह प्रव्रजित हो गया। इसको वंदना न करें। उदभ्रामक द्वारा अपवरक में डाल देना ३. प्रेरणा ४. उपसर्ग ५. मार्ग में
भिक्षाचार्य में गए उस मूर्ख भृतक साधु को देखकर उसकी भार्या भार्या द्वारा रुदन ६. तिरस्कार-यह हमारा कर्मकर था। उसे छाघात देती है अर्थात् छाग की भांति उसका घात करती है। ७. छगलघात ८. अनुलोम उपसर्ग ९. अभियोग १०. विष २४७१. मा छिज्जउ कुलतंतू, धणगोत्तारं तु जणय मेगसुतं। ११. स्वयं श्वसुर द्वारा प्रांतापण, बंध, रोधन। वह श्वसुर को
वत्थऽन्नमादिएहिं, अभिजोग्गेतुं च तं नेति॥ मार देता है अथवा श्वसुर आदि उसको मार देते हैं। (इन सबकी अथवा उस श्रमण को ज्ञातिजन कहते हैं-कुल की संतानव्याख्या अगले श्लोकों में।)
परंपरा छिन्न न हो, इसलिए धन की रक्षा करने वाले एक पुत्र को Jain Education International For Private & Personal Use Only
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है।