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छठा उद्देशक
पैदा कर पुनः प्रव्रजित हो जाना। (यह सुनकर वह मुनि उत्प्रव्रजित हो जाता है ।) वस्त्र, अन्न आदि से उस श्रमण को अभियोजित कर - वश में कर स्वजन उसको अपने साथ खींच लाते हैं।
२४७२. नेच्छति देवरा मं, जीवंति इमम्मि इति विसं देज्जा । अण्णेण व दावेज्जा, ससुरो वा से करेज्जा इमं ॥ २४७३. पंतवण बंधरोहं, तस्स वि णीएल्लगा व खुब्भेज्जा । अधवा कसाइतो ऊ, सो वऽतिवाएज्ज एक्कतरं ॥ उस ज्ञातविधि से आए हुए श्रमण को देखकर उसकी भार्या सोचती है - इसके जीवित रहते देवर मुझे पत्नी के रूप में नहीं चाहते, इसलिए इसको मार डालूं यह सोचकर वह उसे विष देकर अथवा दिलवाकर मार डालती है।
श्वसुर स्वयं कुपित होकर उस पर प्रहार करता है, उसे बंधन में डाल देता है अथवा घर और नगर से निकलने पर प्रतिबंध कर देता है। उस श्रमण के स्वजन उसकी यह दशा देखकर क्षुब्ध हो जाते हैं अथवा वह श्रमण स्वयं कषायित होकर श्वसुर अथवा अन्य किसी को मार डालता है। २४७४. एक्कम्मि दोसु तीसु व मूलऽणवो तथैव पारंची।
अध सो अतिवाइज्जति पावति पारंचियं ठाणं ॥ श्रमण द्वारा एक का अतिपात होने पर मूल प्रायश्चित्त, दो और तीन का अतिपात होने पर क्रमशः अनवस्थाप्य और पारांची प्रायश्चित्त आता है। वह साधु यदि अतिपातित होकर ज्यों-त्यों जीवित रहता है तो वह पारांचित स्थान को प्राप्त होता है। २४७५. अहवावि धम्मसद्धा, साधू तेसिं घरे न गेण्हंती ।
उम्गमदोसादिभया, ताचे नीता भणति इमं ॥ अथवा धर्मश्रद्धान्वित साधु उन ज्ञातिजनों के घर से कुछ भी ग्रहण नहीं करते क्योंकि उन्हें उद्गम आदि दोषों का भय लगता है। तब स्वजन उन्हें कहते हैं२४७६. अम्हं अणिच्छमाणो, आगमणे लज्जणं कुणति एसो । ओभावण हिंडंत, अण्णे लोगो व णं भणति ॥ २४७७. णीयल्लस्स वि भत्तं, न तरह दाउं ति तुब्भ किवणं ती । गेहे भुंजसु वुत्ते, भणाति नो कप्पियं भुंजे ॥ यह श्रमण हमारे घरों से कुछ भी लेना न चाहता हुआ अपने आगमन से हमारा अपयश ही कराता है। अन्य घरों में भिक्षा के लिए घूमता हुआ यह हमारी अपभ्राजना कराता है । अथवा लोग इस प्रकार कहते हैं- 'देखो, ये स्वजन कितने कृपण हैं कि अपने ज्ञाती मुनि को भी भक्तपान दे नहीं सकते।' यह सुनकर स्वजन मुनि के पास आकर कहते हैं- मुनिवर्य ! आप हमारे घर में ही भोजन करें। (भिक्षा के लिए न घूमें) यह सुनकर श्रमण कहता है-मैं तुम्हारे घर में भोजन नहीं करूंगा। मैं कल्पिक
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आहार का ही उपभोग करूंगा।
२४७८. किं तं ति खीरमादी, दामो दिन्ने य भाइभज्जाओ । बेंति सुते जायंते, पडिता णे कर बहू पुत्ता ॥ २४७९. दधि - धय-गुल- तेल्लकरा,
तक्ककरा चेव पाडिया अम्हं ।
रायकर पेल्लिता णं,
समणकदुक्करा वोढुं ॥ स्वजनों ने पूछा- वह कल्पिक क्या है? श्रमण ने कहा- जो यथाकृत है वह कल्पिक है। स्वजन बोले-हम आपको यथाकृत क्षीर आदि देंगे। श्रमण को क्षीर आदि देने के पश्चात् श्रमण की भोजाई क्षीर आदि मांगने वाले अपने पुत्रों से कहती है-हे पुत्रो ! हमारे ऊपर अनेक कर लगे हुए हैं जैसे-दधिकर, घुनकर, गुडकर, तैलकर, तक्रकर-ये कर तो हैं ही इनके अतिरिक्त अनेक प्रकार के राज्यकरों से हम प्रेरित हैं। इन सबमें श्रमणकर का वहन करना दुष्कर होता है। २४८०. एते अण्णे य तर्हि नातविधीगमणे होंति दोसा उ
तम्हा तु न गंतव्वं, कारणजाते भवे गमणं ॥ ज्ञातविधिगमन में उपरोक्त दोषों के अतिरिक्त अन्य दोष भी होते हैं। इसलिए ज्ञातविधि में नहीं जाना चाहिए - यह उत्सर्ग विधि है। अपवादस्वरूप कारण होने पर जाया जा सकता है। २४८१. गेलण्णकारणेणं, पाउग्गाऽसति तहिं तु गंतव्वं ।
जे तु समत्थुवसग्गे, सहिउं ते जंति जतणाए । ग्लानत्व के कारण प्रायोग्य औषध आदि की प्राप्ति के अभाव में ज्ञातविधि में जाया जा सकता है। परंतु वहां वे ही जाएं जो उपसर्गों को सहन करने में समर्थ हों वे वहां यतनापूर्वक जा सकते हैं।
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२४८२. बहिय अणापुच्छाए, लहुगा लहुगो य दोच्चऽणापुच्छा ।
आयरियस्स वि लहुगा, अपरिच्छित पेसर्वेतस्स ॥ स्थविरों को पूछे बिना यदि श्रमण बाह्य ज्ञातविधि में जाता है तो उसे चार लघुक का प्रायश्चित्त तथा दूसरी बार बिना पूछे जाने पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आचार्य भी यदि अपरीक्षित श्रमणों को भेजते हैं तो उन्हें भी चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है।
२४८३. तम्हा परिच्छितव्वो सज्झाए तह य भिक्खऽभावे य
थिरमधिरजाणणट्ठा, सो उ उवाएहिमेहिं तु ॥
इसलिए स्वाध्याय और भिक्षाभाव में परीक्षा करनी चाहिए। स्थिर है अथवा अस्थिर इसको जानने के लिए इन उपायों से उसकी परीक्षा की जाए।
२४८४. चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव राज्झाओ । एत्थ परितम्ममाणं तं जाणसु मंदसंविग्गं ॥
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