SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ चरण-करण' का सार है-भिक्षाचर्या और स्वाध्याय। जो इनके आचरण में परितप्त होता है, क्लेश मानता है, उसको मंदसंविग्न जानना चाहिए। २४८५. चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ उ उज्जममाणं, तं जाणसु तिव्वसंविग्गं॥ चरण करण का सार है-भिक्षाचार्य और स्वाध्याय। जो इनमें उद्यमशील है उसे तीव्रसंविग्न जानना चाहिए। २४८६. कइएण सभावेण य, अण्णस्स य साहसे कहिज्जते। मात-पिति-भात-भगिणी, भज्जा-पुत्तादिएसुं तु॥ (यह उपसर्ग-सहिष्णु है या नहीं यह परीक्षा करने के लिए) माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र आदि द्वारा किए जाने वाले रुदन आदि भयोत्पादक स्थितियों को अन्य व्यक्ति मायापूर्वक अथवा स्वाभाविक रूप से इस प्रकार कहता है२४८७. सिरकोट्टणकलुणाणि य, कुणमाणाई तु पायपडिताई। __ अमुगेण न गणियाई, जो जंपति निप्पिवासो त्ति॥ अमुक श्रमण के माता-पिता आदि द्वारा शिरःकुट्टन, करुण रोदन, करुण भाषण आदि किए जाने पर भी तथा पैरों में गिर जाने पर भी उसने उनकी परवाह नहीं की। इस प्रकार बताए जाने पर जो श्रमण ऐसे कहता है-वह श्रमण निष्पिपासित (कठोरहृदयवाला) होता है। (उसके साथ बात भी नहीं करनी चाहिए।) २४८८. सो भावतो पडिबद्धो, अप्पडिबद्धो वएज्ज जो एवं। सोइहिति केत्तिए तू, नीया जे आसि संसारे। जो ज्ञातिजनों से प्रतिषद्ध होता है, वह उपसर्गों को सहन नहीं कर सकता। जो अप्रतिबद्ध होता है वह इस प्रकार कहता है-(संसार के सभी जीव सभी के पुत्र आदि रूप में उत्पन्न हो चुके हैं।) संसार में अनंत निजक हैं-ज्ञातिजन हैं। वह किन-किन का शोक करेगा ! (ऐसा अप्रतिबद्ध श्रमण ही उपसर्ग सहन करने में समर्थ होता है।) २४८९. मुहरागमादिएहि य, तेसिं नाऊण राग-वेरग्गं। नाऊण थिरं ताधे, ससहायं पेसवेंति ततो।। जो श्रमण ज्ञातविध में जाना चाहते हैं, उनके मुखराग आदि के आधार पर राग और वैराग्य को जानकर, स्थिर और अस्थिर को जानकर आचार्य उनको ससहाय भेजते हैं अथवा जो स्थिर हैं उसको सहायक के रूप में भेजते हैं। २४९०. अबहुस्सुतो अगीतो, बहिरसत्थेहि विरहितो इतरो। तव्विवरीते गच्छे, तारिसगसहायसहितो व॥ १. चरण-वयसमणधम्मसंजमवेयावच्चं च बंभगुत्तीतो। नाणादितियं तवो कोहनिग्गहा इइ चरणमेयं । सानुवाद व्यवहारभाष्य जो अबहुश्रुत और अगीतार्थ हो, जो बाह्य शास्त्रों के ज्ञान से विरहित हो, वह ज्ञातविधि में न जाए। किंतु जो इनसे विपरीत हो अर्थात् बहुश्रुत और गीतार्थ हो, बाह्य शास्त्रों का ज्ञाता हो वह जा सकता है। अथवा ऐसे सहायक के साथ जा सकता है। २४९१. धम्मकही-वादीहिं, तवस्सि-गीतेहि संपरिखुडो उ। णेमित्तिएहि य तधा, गच्छति सो अप्पछट्ठो उ। धर्मकथी, वादी, तपस्वी, गीतार्थ तथा नैमित्तिक-इन पांचों से परिवृत होकर वह जाए। वे यदि अधिक न हों तो एक-एक को साथ ले, स्वयं छठे रूप में ज्ञातविधि में जाए। २४९२. पत्ताण वेल पविसण, अध पुण पत्ता पगे हवेज्जाहि। तं बाहिं ठावे, वसहिं गिण्हति अन्नत्थ ।। २४९३. पडिवत्तीकुसलेहिं, सहितो ताधे उ वच्चए तहियं । वास-पडिग्गहगमणं, नातिसिणेहासणग्गहणं ।। यदि भिक्षावेला में स्थान प्राप्त हो जाए तो सभी एक साथ प्रवेश करे। यदि प्रभात में स्थान प्राप्त हो तो जो साथ में स्वजन वाला श्रमण है, उसे बाहिर स्थापित कर अन्यत्र वसति ग्रहण करें। वसति ग्रहण करने के पश्चात् बहिःस्थित मुनि प्रतिपत्तिकुशल मुनियों के साथ उस वसति में चला जाए। वहां तब तक आवास करे जब तक भिक्षावेला न हो जाए। भिक्षावेला के समय पात्र लेकर वहां से गमन कर दे। स्वजनों के प्रति अतिस्नेह न दिखाए। वहां जाकर आसन ग्रहण करे। २४९४. सयमेव उ धम्मकधा, सासग पंते य निम्मुहे कुणति। अपडुप्पण्णे य तहिं, कहेति तल्लद्धिओ अण्णो॥ यदि वह स्वज्ञातिक मुनि प्रांत व्यक्तियों को निरुत्तर करने में समर्थ हो तो वह स्वयं ही धर्मकथा करे। यदि वह अप्रत्युपन्न हो तो अन्य मुनि जो धर्मकथा की लब्धि से संपन्न हो उसको धर्मकथा के लिए कहे। २४९५. मलिया य पीढमद्दा, पव्वज्जाए य थिरनिमित्तं तु। थावच्चापुत्तेणं, आहरणं तत्थ कायव्वं ।। मलिय (मर्दित) तथा पीठमर्द (मुंह पर प्रिय बोलने वाले)-इनको प्रव्रज्या में स्थिर करने के लिए धर्मकथा के प्रसंग में थावच्चापुत्र का उदाहरण कहना चाहिए। २४९६. कहिए य अकहिए वा, जाणणहेउं अइंति भत्तघरं। पुव्वाउत्तं तहियं, पच्छाउत्तं व जं तत्थ।। धर्मकथा करने या न करने पर मुनि यह जानने के लिए भक्तगृह-रसोईघर में प्रवेश करते हैं कि जो भोजन उपस्कृत हो रहा है वह पूर्वायुक्त(पूर्वप्रवृत्त) है अथवा पश्चाद् आयुक्त (साधुओं करण-पिंडविसोही समिति भावणपडिमा य इंदियनिरोहो। पडिलेहणगुत्तीतो अभिग्गहा चेव करणं तु॥ (व्य.वृ.गाथा २४८४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy