SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा उद्देशक २४४७. छेदण-दाहनिमित्तं, मंडलिडक्के य दीहगेलण्णे। पाउग्गोसधहेउं, णायविधी सुत्तसंबंधो। सर्पदंशस्थान के छेदन अथवा दाह के निमित्त तथा मंडलिसर्प के काटने से दीर्घकालीन ग्लानत्व के निवारण के लिए प्रायोग्य औषध के कारण ज्ञातविधि का ज्ञान आवश्यक होता है। उसके प्रतिपादन के लिए यह शुभारंभ है-यही सूत्र संबंध है। २४४८. गेलण्णमधिकतं वा, गिलाणहेउं इमो वि आरंभो। आगाढं व तदुत्तं, सहणिज्जतरं इमं होति ।। अथवा ग्लानत्व अधिकृत है। ग्लान हेतु के लिए यह सूत्रारंभ है। यह भी प्रकारांतर से सूत्रसंबंध है। अनन्तर सूत्र में आगाढ़ ग्लानत्व उक्त है। प्रस्तुत में ज्ञातविधि में गमन करने के कारण यह सहनीयतर होता है। २४४९. अम्मा-पितिसंबंधो, पुव्वं पच्छा व संथुता जे तु। एसा खलु णायविधी, णेगा भेदा य एक्केक्के॥ माता और पिता के द्वारा होने वाले संबंध अथवा पूर्वसंस्तुत तथा पश्चात् संस्तुत से होने वाले संबंध यह ज्ञातविधि है। प्रत्येक के अनेक भेद हैं। २४५०. नायविधिगमण लहुगा, आणादिविराधण संजमायाए। संजमविराधणा खलु, उग्गमदोसा तहिं होज्जा॥ यदि विधिपूर्वक भी ज्ञातविधि में निष्कारणगमन करता है तो प्रायश्चित्त स्वरूप चार लघुक प्राप्त होते हैं तथा आज्ञा आदि दोष, संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। जहां संयमविराधना होती है वहां निश्चितरूप से आधाकर्म आदि दोष होते इस प्रकार यह संयमविराधना होती है। आत्मविराधना में छगल का दृष्टांत, सेनापति के मर जाने पर करुण रुदन, रत्नस्थाल में उपहृत एवं आदि (इसका विस्तार अगली कुछेक गाथाओं में।) २४५३. जध रण्णो सूयस्सा, मंसं मज्जारएण अक्खित्तं। सो अद्दण्णो मंसं, मग्गति इणमो य तत्थातो।। २४५४. कडुहंड पोट्टलीए, गलबद्धाए उ छगलओ तत्थ। सूवेण य सो वहितो, थक्के आतो ति नाऊणं ।। राजा के सूपकार के पास पकाने के लिए मांस पड़ा था। एक मार्जार ने उसका हरण कर दिया। सूपकार भय से आकुलव्याकुल होकर मांस की गवेषणा करने लगा। इतने में ही वहां एक छगलक आ गया। उसके गले में उपस्कर की पोटली बंधी हुई थी। सूपकार ने उसे यह सोचकर मार डाला कि यह छगलक उचित अवसर पर आया है। २४५५. एवं अद्दण्णाई, ताई मग्गंति तं समंतेणं। __ सो य तहिं संपत्तो, ववरोवित संजमा तेहिं।। इस प्रकार सूपकार की भांति आकुल-व्याकुल होकर उस श्रमण के स्वजन उस श्रमण की चारों ओर से मार्गणा करते हैं। उसको वहीं आया हुआ देखकर वे स्वजन उसे नाना प्रकार से गृहस्वामी बनने के लिए प्रलोभित करते हैं। वह संयम से व्यपरोपित हो जाता है, भ्रष्ट हो जाता है। २४५६. सेणावती मतो ऊ, भाय-पिया वा वि तस्स जो आसी। __ अण्णो य नत्थि अरिहो, नवरि इमो तत्थ संपत्तो॥ २४५७. तो कलुणं कंदंता, बैंति अणाहा वयं विणा तुमए। __ मा य इमा सेणावति, लच्छी संकामओ अन्नं ।। २४५८. तं च कुलस्स पमाणं, बलविरिए तुज्झऽहीणमंतं च। पच्छावि पुणो धम्म, काहिसि दे! ता पसीयाहि॥ स्वजन कहते हैं-सेनापति (गृहनायक) की मृत्यु हो गई। उसके जो पिता और भाई थे, वे भी मर गए। अब उनके घर में कोई नायकत्व का वरण करने योग्य नहीं है। तुम ही उसके योग्य हो और अब तुम सहजरूप से यहां आ गए हो। वे करुण क्रंदन करते हुए कहते हैं-तुम्हारे बिना हम अनाथ हैं। नायकत्व की यह २४५१. दुल्लभलाभा समणा, नीया नेहेण आहकम्मादी। चिरआगयस्स कुज्जा, उग्गमदोसं तु एगतरं। ज्ञातिजन सोचते हैं-श्रमणों का लाभ दुर्लभ होता है। ये हमारे स्नेह से यहां आए हैं। यह सोचकर स्वजन चिरकाल से समागत इनके लिए आधाकर्म, उद्गम आदि दोष में से किसी एक को करता है। २४५२. इति संजमम्मि एसा, विराधणा होतिमा उ आयाए। छगलग सेणावति कलुण, रयणथाले य एमादी॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy