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________________ २३० आदर्शविद्या आदर्श (कांच) में संक्रांत रोगी के प्रतिबिंब पर जाप करना । वस्त्रविद्या वस्त्र को मंत्रित कर रोगी को उससे प्रावृत करना अथवा उससे रोगी का प्रमार्जन करना । दर्भविद्या-हाथ से स्पर्श न करते हुए दर्भ आदि से प्रमार्जन करना । चापेटी विद्या- दूसरे के चपेटा मारने से रोगी स्वस्थ हो जाता है। (ये विद्याएं प्रायः पुरुषों में होती है इसलिए यह यतनागम निर्ग्रथों का जानना चाहिए।) आंतःपुरिकीविद्या- रोगी का नाम लेकर अपने अंग का प्रमार्जन करना। व्यजनविद्या-पंखे को अभिमंत्रित कर उससे रोगी पर पवन प्रमार्जन करना । तालवृंतविद्या -- ताड के पंखे को अभिमंत्रित कर उससे रोगी का प्रमार्जन करना । करना, २४४२. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होति नायव्वो । विज्जादी मोतूणं, अकुसलकुसले य करणं च ॥ यही यतनागम नियमतः श्रमणियों के भी ज्ञातव्य है। निर्ग्रथी को विद्या आदि नहीं देनी चाहिए। यदि पूर्वगृहीत हो तो उसे छोड़कर। निर्ग्रथ यदि अकुशल हो और निर्ग्रथी कुशल हो तो उससे चिकित्सा करानी चाहिए। २४४३. मंतो हवेज्ज कोई, विज्जा उ ससाणा न दायव्वा । तुच्छा गारवकरणं, पुव्वाधीता य उ करेज्जा ।। कोई ससाधन मंत्र हो अथवा विद्या निर्ग्रथी को नहीं देनी चाहिए। क्योंकि वे स्वभाव से तुच्छ तथा गौरवबहुल होती हैं। यदि मंत्र और विद्या पूर्व अधीत हो तो प्रागुक्तयतना के क्रम से उसका प्रयोग करे। २४४४. अज्जाणं गेलण्णे, संथरमाणे सयं तु कायव्वं । वोच्चत्थ मासचउरो, लहु-गुरुगा थेरए तरुणे ॥ आर्यिका यदि ग्लान के प्रयोजन में स्वयं समर्थ हो तो वह स्वयं चिकित्सा करे। इसी प्रकार निग्रंथ भी निर्ग्रथ की चिकित्सा स्वयं करे। इसमें विपर्यास करने पर यदि स्थविर कारक हो तो प्रायश्चित्त स्वरूप चार लघुमास तथा तरुणकारक हो तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। २४४५. जिणकप्पिए न कप्पति, दप्येणं अजतणाय घेराणं । कप्पति य कारणम्मि, जयणाम गच्छे स सावेक्खो || जिनकल्पिक को स्वपक्ष अथवा परपक्ष से वैयावृत्त्य कराना नहीं कल्पता स्थविरकल्पिक को दर्प से अर्थात् निष्कारण अयतना से वैयावृत्त्य कराना नहीं कल्पता । कारण में यतनापूर्वक Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य कराना कल्पता है क्योंकि गच्छ में वह सापेक्ष होता है। २४४६. चिद्वति परिवाओ से, तेण च्छेदादिया न पावैति । परिहारं च न पावति, परिहार तवो त्ति एगहं ॥ वैयावृत्त्य कराने से उसकी पर्याय वैसे ही रहती है। उसे छेद आदि प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होते। उसे परिहार तप भी प्राप्त नहीं होता परिहार और तप एकार्थक हैं। For Private & Personal Use Only पांचवां उद्देशक समाप्त www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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