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________________ कायष्य पांचवां उद्देशक २२९ होता है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित, आज्ञा आदि दोष तथा २४३५. तम्हा उ सपक्खेणं, कातव्व गिलाणगस्स तेगिच्छं। इन स्थानों-कथ्यमान स्थानों की विराधना होती है। विवक्खेण न कारेज्ज, एवं उदितम्मि चोदेति॥ २४२८. उप्पण्णे गेलण्णे, जो गणधारी न जाणति तिगिच्छं। विपक्ष से चिकित्सा कराने में दोष है, इसलिए ग्लान की दीसंततो विणासो, सुहदुक्खी तेण तू चत्ता॥ चिकित्सा सपक्ष में होनी चाहिए, विपक्ष में नहीं करानी चाहिए जो गणधारी उत्पन्न रोग की चिकित्सा नहीं जानता, उसके इस प्रकार आचार्य का कथन होने पर शिष्य कहता हैदेखते-देखते ही रोगी का विनाश हो जाता है तथा सुख-दुःख के २४३६. सुत्तम्मि अणुण्णातं, इह इं पुण अत्थतो निसेधेह। लिए उपसंपन्न शिष्य तथा प्रतिच्छक सभी उस गणधारी को कायव्व सपक्खेणं, चोदग सुत्तं तु कारणियं॥ छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। सूत्र में विपक्ष से वैयावृत्त्य करवाना अनुज्ञात है, अब अर्थ २४२९. आतुरत्तेण कायाणं, विसकुंभादि घातए। से उसका निषेध किया जाता है। सूत्र में है-सपक्ष से चिकित्सा डाहे छज्जे य जे अण्णे, भवंति समुवद्दवा॥ करवानी चाहिए, तब सूत्र और अर्थ में विरोध आता है। आचार्य २४३०. एते पावति दोसा, अणागतं अगहिताय विज्जाए। कहते हैं-विरोध नहीं है। वत्स! यह सूत्र कारणिक है। ___असमाही सुयलंभं, केवललंभं तु उप्पाए॥ २४३७. वेज्जसपक्खाणऽसती, मुनि विषकुंभ आदि (लूता) रोग से व्याकुल होकर गिहि-परतित्थी उ तिविधसंबंधी। विषकुंभ की घात के लिए काय (पानी आदि) का समारंभ करता एमेव असंबंधी, है। दाह, छेद (सर्पदंश के स्थान का छेदन करना) आदि अन्यान्य असोयवादेतरा सव्वे॥ समुपद्रव उपस्थित होते हैं। उन उपद्रवों के उपशमन के लिए सपक्ष वैद्य के अभाव में गृहस्थ, परतीर्थक अथवा तीन जिसने पहले ही अनेक विद्याओं का ग्रहण नहीं किया है उसके ये प्रकार के संबंधी-स्थविर, तरुण और मध्यम से भी चिकित्सा दोष उत्पन्न होते हैं। उससे असमाधिमरण हो सकता है। यदि वह कराई जा सकती है। इसी प्रकार असंबंधी से भी चिकित्सा चिरकाल तक जीवित रहता तो श्रुत का लाभ प्राप्त कर सकता था विहित है। ये सभी दो प्रकार के होते हैं-शौचवादी और और केवलज्ञान भी उत्पन्न हो सकता था। अशौचवादी। पहले अशौचवादी से, उसके अभाव में शौचवादी २४३१. इह लोगियाण परलोगियाण लद्धीण फेडितो होति।। से भी। इहलोगे मोसादी, परलोगेऽणुत्तरादीया॥ २४३८. एतेसिं असतीए, असमधिमरण से इहलौकिक और पारलौकिक लब्धियों से गिहि-भगिणि परतित्थिगी तिविहभेदा। वह वंचित हो जाता है। इहलौकिक लब्धियां हैं-आमर्ष आदि एतेसिं असतीए, और पारलौकिक लब्धियां हैं-अनुत्तर देवलोक-लवसत्तम की समणी तिविधा करे जतणा॥ प्राप्ति। पूर्वगाथा में निर्दिष्ट व्यक्तियों के अभाव में गृहस्थ-माता, २४३२. असमाधीमरणेणं, एवं सव्वासि फेडितो होति। भगिनी आदि से उनके अभाव में पारतीर्थिकी-तीन प्रकार जह आउगपरिहीणा, देवा लवसत्तमा जाता॥ (स्थविर, मध्यम और तरुण) से चिकित्सा करवाए। इन सबके २४३३. सत्तलवा जदि आउं, पहुप्पमाणं ततो तु सिझंतो। अभाव में तीन प्रकार की श्रमणियों (स्थविरा, मध्यमा और तत्तियमेत्त न भूतं, तो ते लवसत्तमा जाता॥ तरुणी) से यतनापूर्वक चिकित्सा कराए। असमाधिमरण से सभी लब्धियों से विरहित होना पड़ता २४३९. दूती अदाए ता, वत्थे अंतेउरे य दब्भे वा। है। जैसे आयुष्क की परिहानि से देव लवसप्तम बने। यदि सात वियणे य तालवंटे, चवेड ओमज्जणा जतणा।। लव मात्र का आयुष्य अधिक होता तो वे देव न बनकर सिद्धिगति दूतविद्या, आदर्शविद्या, वस्त्रविद्या, आंतःपुरिकीविद्या, को प्राप्त हो जाते। किंतु उतना मात्र भी आयुष्य नहीं रहा अतः वे दर्भविद्या, व्यजनविद्या, तालवृंतविद्या, चापेटीविद्या-यह लवसप्तम देव बने। अपमार्जना यतना है। २४३४. सव्वट्ठसिद्धिनामे, उक्कोसठितीय विजयमादीसु। २४४०. दूयस्सोमाइज्जइ, असती अद्दाग परिजवित्ताणं। एगावसेसगब्भा, भवंति लवसत्तमा देवा।। परिजवितं वत्थं वा, पाउज्जइ तेण वोमाए।। अनुत्तर विमान के विजय आदि सर्वार्थसिद्ध विमान में २४४१. एवं दब्मादीसुं ओमाएऽसंफुसंत हत्थेणं । उत्कृष्टस्थिति वाले तथा जिनका एक भव शेष रहा हो वे लवसप्तम चावेडीविज्जाए व, ओमाए चेडयं दितो।। देव होते हैं। दूतविद्या-रोगी के पास आये दूत का अंग प्रमार्जन करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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