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सानुवाद व्यवहारभाष्य के परमाणु जितने खंड होते हैं उतने असंयम-स्थान हैं।
छठे, सातवें, आठवें, नौवें, दशवें और ग्यारहवें उद्देशक में ४०२. बारस अट्ठग छक्कग, माणं भणितं जिणेहि सोधिकरं। अनुद्घातित चातुर्मासिक बताये हैं। उनकी एकत्र संख्या
तेण परं जे मासा, साहण्णंता परिसडंति ।। है-६४४। बारहवें से उन्नीसवें उद्देशकों में उद्घातित चातुर्मासिक
जिन अर्थात् तीर्थंकरों ने तीन प्रकार के शोधिकर का उल्लेख है। उनकी एकत्र संख्या है-७२४। समस्त प्रायश्चित्त के प्रमाण बतलाये हैं-प्रथम तीर्थंकर के समय में १२ चातुर्मासिक प्रायश्चित्तों की संख्या होती है-६४४+७२४ मास, मध्यमतीर्थंकर के समय में ८ मास और अंतिम तीर्थंकर के =१३६८। अब आगे मासिक, चातुर्मासिक आदि सभी समय में ६ मास। इनसे अधिक का प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता। प्रायश्चित्तों की संकलित संख्या बताऊंगा। इन मास-प्रमाणों से अधिक मास की प्रतिसेवना करने पर भी ४०९. नवयसता य सहस्सं, ठाणाणं पडिवत्तिओ। स्थापना-आरोपणा की विधि से संहन्यमान होकर वे मास त्यक्त बावण्णा ठाणाई, सत्तरि आरोवणा कसिणा।। हो जाते हैं। (उतने मात्र प्रायश्चित्त से ही प्रतिपद्यमान की शोधि पूर्वोक्त मासिक आदि प्रायश्चित्त स्थानों की प्रतिपत्तियां हो जाती है।
(प्रतिपादन) १९५२ है। कृत्स्ना आरोपणा के स्थान ७० हैं। ४०३. केवल-मणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। ४१०. सव्वेसिं ठवणाणं, उक्कोसारोवणा भवे कसिणा ।
चोद्दस-दस-नवपुव्वी, कप्पधर पकप्पधारी य ।। सेसा चत्ता कसिणा, ता खलु नियमा अणुक्कोसा ।। ४०४. घेप्पंति च सद्देणं, निज्जुत्ती-सुत्त-पेढियधरा यं । प्रथम स्थापना-आरोपणा के तीस स्थान हैं। उन सभी
आणा-धारण जीते, य होति पभुणो उ पच्छित्ते ।। स्थानों में अंतिम आरोपणा उत्कृष्ट होती है। वह झोषविरहित प्रायश्चित्त देने के अधिकारी
होने के कारण कृत्स्ना आरोपणा होती है। उनकी सर्वसंख्या है १. केवलज्ञानी २. मनःपर्यवज्ञानी ३. अवधिज्ञानीजिन ४. ३०। शेष चालीस अनुत्कृष्ट आरोपणाएं कृत्स्ना हैं। इस प्रकार चतुर्दशपूर्वी ५. दशपूर्वी ६. नौपूर्वी (प्रतिपूर्ण अथवा नौवें पूर्व की सत्तर कृत्स्ना आरोपणाएं हैं। त्रितीय आचारवस्तु के धारक) ७. कल्पधर-बृहत्कल्प और ४११. वीसाए तू वीसा, चत्त असीया य तिण्णि कसिणाओ। व्यवहार के धारक ८. प्रकल्पधर-निशीथ के धारक ९. नियुक्ति
तीसाए पक्ख पणवीस, तीस पण्णास पणसतरी ।। धर १०.सूत्र-पीठिकाधर (निशीथ, कल्प और व्यवहार के प्रथम ४१२. चत्ताए वीस पणतीस, सत्तरी चेव तिण्णि कसिणाओ। पीठिका के धारक) तथा ११. आज्ञा १२. धारणा और १३ जीत
पणयालाए पक्खो, पणयाला चेव दो कसिणा।। व्यवहारी।
४१३. पण्णाए पण्णट्ठी, पणपण्णाए य पण्णवीसा य । ४०५. अणुघातियमासाणं, दो चेव सता हवंति बावण्णा। सट्ठिठवणाए पक्खो, वीसा तीसा य चत्ता य ।।
तिण्णि सया बत्तीसा, होति य उग्घातियाणं पि।। ४१४. सयरीए पणपण्णा, तत्तो पण्णत्तरीए पक्ख पणतीसा। ४०६. पंचसता चुलसीता, सव्वेसिं मासियाण बोधव्वा। असतीए ठवणाए, वीसा पणुवीस पण्णासा ।।
तेण परं वोच्छामी,चाउम्मासाण संखेवं ।। ४१५. नउतीय पक्ख तीसा, शिष्य ने पूछा-प्रायश्चित्त कितने हैं ? आचार्य ने कहा
पणताला चेव तिण्णि कसिणाओ। अर्थतः प्रायश्चित्त अपरिमित हैं। सूत्रतः उनका परिमाण यह सतियाए वीस चत्ता, है-निशीथ अध्ययन के प्रथम उद्देशक में अनुद्घातित (गुरु)
पंचुत्तर पक्ख पणवीसा ।। मास का परिमाण बतलाया है-२५२ और दूसरे, तीसरे, चौथे ४१६. दस्सुत्तरसतियाए, पणतीसा वीस उत्तरे पक्खो।
और पांचवे उद्देशक में उद्घातित (लघु) मास का परिमाण है वीसा तीसा य तधा, कसिणाओ तिण्णि बीए य ।। ३३२। सभी मासों का संकलन है ५८४। आगे चातुर्मासिक का ४१७. तीसुत्तरपणवीसा, पणतीसा पक्खिया भवे कसिणा। संक्षेप बताऊंगा।
चत्तालीसा वीसा, पण्णासं पक्खिया कसिणा ।। ४०७. छच्चसता चोयाला, चाउम्मासाण होतऽणुग्घाया। कितने स्थापना
कौनसी कितनी सत्त सया चउवीसा, चाउम्मासाण उग्घाता।। दिनों में
कृत्स्ना आरोपणा ४०८. तेरससतअट्ठठ्ठा, चाउम्मासाण होति सव्वेसिं। २०
तीन-२०, ४० और ८० दिन की। तेण परं वोच्छामी, सव्वसमासेण संखेवं ।। ३०
पांच-१५,२५,३०,५० तथा ७५ दिन की। १. वृत्तिकार का कथन है कि सूक्ष्मपरमाणु अनंत होते हैं। असंयम स्थान नहीं।
(वृत्ति पत्र ७९) उत्कृष्टरूप में असंख्येय लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं, अनंत Jain Education International For Private & Personal Use Only
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