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पीठिका
ववहारो ववहारी, ववहरियव्वा य जे जहा पुरिसा। ५. अत्थी पच्चत्थीणं, हाउं एगस्स ववति बितियस्स। एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं।
एतेण उ ववहारो, अधिगारो एत्थ उ विहीए। व्यवहार, व्यवहारी और व्यवहर्तव्य (जो पुरूष जिस रूप एक से अर्थात् प्रत्यर्थी से हरण कर (लेकर) दूसरे को में व्यवहार करने योग्य हैं)-मैं इन तीन पदों में से प्रत्येक पद की अर्थात् अर्थी में वपन करना देना व्यवहार है। इसमें 'हरण' और प्ररूपणा करूंगा।
'वपन' दोनों क्रियाएं होती हैं इसलिए इसे व्यवहार कहा जाता है। २. ववहारी खलु कत्ता, ववहारो होति करणभूतो उ।। व्यवहार विधिपूर्वक भी होता है और अविधिपूर्वक भी। प्रस्तुत
ववहरियव्वं कज्जं, कुंभादितियस्स जह सिद्धी॥ ग्रंथ में विधिपूर्वक व्यवहार का अधिकार है-प्रयोजन है। व्यवहारी है कर्त्ता, व्यवहार है करणभूत और व्यवहर्त्तव्य है ६. ववहारम्मि चउक्कं, दव्वे पत्तादि लोइयादी वा। कार्य। जैसे कुंभ कहने से कुंभत्रिक कुंभ, कुंभकार और मिट्टी
नोआगमतो पणगं, भावे एगट्ठिया तस्स॥ तीनों की सिद्धि होती है, वैसे ही व्यवहार के कथन से व्यवहार व्यवहार के चार प्रकार हैं-नाम व्यवहार,स्थापना व्यवहारी और व्यवहर्त्तव्य का ग्रहण हो जाता है ।
व्यवहार, द्रव्य व्यवहार और भाव व्यवहार। द्रव्य व्यवहार है पत्र ३. नाणं नाणी णेयं, अन्ना वा मग्गणा भवे तितए। आदि पर लिखित पुस्तक। अथवा इसके तीन प्रकार
विविहं वा विहिणा वा, ववणं हरणं च ववहारो॥ हैं-लौकिक, कुप्रावचनिक तथा लोकोत्तर। नो आगमतः भाव
(कुंभत्रिक की भांति) अन्य त्रिक की मार्गणा यह है-ज्ञान, व्यवहार के पांच प्रकार हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और ज्ञानी और ज्ञेय।
जीत। (व्यवहार पद का निर्वचन) विविध प्रकार से अथवा ७. सुत्ते अत्थे जीते, कप्पे मग्गे तधेव नाए य। अर्हत्भाषित विधि के अनुसार वपन करना-तप आदि विशेष
तत्तो य इच्छियव्वे, आयरियव्वे य ववहारो॥ प्रायश्चित्त देना तथा हरण करना-अतिचार आदि दोषों का भाव व्यवहार के एकार्थक-सूत्र, अर्थ, जीत, कल्प, मार्ग, अपनयन करना 'व्यवहार' है।
न्याय, इप्सितव्य, आचरित तथा व्यवहार। ४. ववणं ति रोवणं ति य, पकिरण परिसाडणा य एगहूँ। ८. एगट्ठिया अभिहिया, न य ववहारपणगं इहं दिहूँ। हारो ति य हरणं ति य, एग8 हीरते व त्ति ।।
भण्णति एत्थेव तयं, दट्ठव्वं अंतगयमेव ।। वपन शब्द के चार एकार्थक हैं-वपन, रोपण, प्रकिरण व्यवहार के जो एकार्थक कहे गये हैं, उनमें व्यवहार पंचक और परिशाटन। हरण शब्द के तीन एकार्थक हैं-हार, हरण और (आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा, जीत) प्राप्त नहीं है। आचार्य ह्रियते। (वपन करना-प्रदान करना। हरण करना-अपनयन कहते हैं कि उन एकार्थकों में ही व्यवहार पंचक द्रष्टव्य है। करना)
९. आगमसुताउ सुत्तेण, सूइया अत्थतो उ ति-चउत्था।
बहुजणमाइण्णं पुण, जीतं उचियं ति एगढें ॥ १. कुंभ है कार्य, कुंभकार है कर्ता और चाक आदि है करण। वैसे ही आदि के सूत्रार्थधारी। व्यवहारी है प्रायश्चित्त दाता, व्यवहार है प्रायश्चित्त और व्यवहर्त्तव्य
आज्ञा व्यवहारी-विशिष्ट गीतार्थ आचार्य क्षीणजंघाबल के कारण है प्रायश्चित्त लेने वाला।
अथवा दूरदेशांतर के कारण आने में असमर्थ होने पर उनकी आज्ञा २. जिससे जाना जाता है वह है ज्ञान, जो जानता है वह है ज्ञानी और जो के अनुसार प्रायश्चित्त देना आज्ञा व्यवहार है। पदार्थ जाना जाता है वह है ज्ञेय।
धारणा व्यवहारी-अपना धारणा के आधार पर प्रायश्चित्त देना। ३. आगम व्यवहारी छह हैं केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, जीत व्यवहारी अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचीर्ण का अनुगमन चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और नौपूर्वी।
करना। श्रुत व्यवहारी-अवशिष्ट पूर्वधर, ग्यारह अंगधारी, कल्प व्यवहार
(वृत्ति पत्र ६,७)
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