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________________ सातवां उद्देशक २९९ किसी ग्राम में सभी क्षेत्र भूमियां विभक्त हो गई हों तो उनकी सीमा में शव परिष्ठापन करने की अनुमति नहीं मिलती। अनुमति न मिलने पर राजभय से उस गांव के भोजिक-प्रधान से अनुमति मांगी जाती है। उसके इंकार करने पर आयुक्त को पूछा जाता है। अनुमति न मिलने पर राजपथ पर अथवा दो गांवों की सीमा के मध्य में शव का परिष्ठापन किया जाता है। ३२७७. असतीए सीयाणे, रुंभण अन्नत्थ अपरिभोगम्मि। नि.असती अणुसट्ठादी, पंतग अंताइ इतरे वा॥ कोई भी स्थान न मिलने पर श्मशान में शव का परिष्ठापन कर दे। वहां यदि श्मशानपालक रोकता है तो अन्यत्र जो अनाथमृतकों का स्थान होता है वहां परिष्ठापन कर दिया जाता है। वैसे स्थान के अभाव में श्मशानपालक को अनुशिष्टि, धर्मकथा से प्रभावित करना चाहिए। फिर भी यदि वह नहीं मानता है तो मृतक के जो कपड़े हैं वे उसे देकर अनुमति लेते हैं। उन अंत-प्रांत कपड़ों से वह संतुष्ट नहीं होता है तो दूसरे नए कपड़े उसे देते हैं। ३२७८. अदसाइ अणिच्छंते, साधारणवयण दार मोत्तूणं। सति लंभमुवारुहणं, सव्वे व विगिंचणा लंभे॥ यदि श्मशानपालक किनारी रहित कपड़े लेना न चाहे तो उसे साधारण वचनों में कहे-गांव में जाकर हम याचना करेंगे, प्राप्त होने पर तुम्हें देंगे। यह कहकर मृत कलेवर को श्मशानद्वार पर उतारकर मुनि गांव में जाते हैं। यदि किनारी वाले वस्त्र प्राप्त हो जाते हैं तो लाकर दे देते हैं। यदि प्राप्त न हों तो राजकुल में जाकर शिकायत करते हैं और राजपुरुष को साथ लेकर श्मशान में शव का प्रतिष्ठापन कर देते हैं। राजकुल में यदि समाधान न मिले तो पूर्वोक्त रूप से शव का परिष्ठापन कर दे। ३२७९. सीताणस्स वि असती, अलंभमाणे वि उवरि कायाणं। निसिरंता जतणाए, धम्मादि पदेसनिस्साए।। श्मशान के अभाव में तथा स्थान न मिलने पर पृथ्वीकायिक आदि कायगत स्थान में यतनापूर्वक 'धर्मास्तिकायादिप्रदेश पर हम इस शव का परिष्ठापन करते हैं', यह मन में कल्पना कर शव को परिष्ठापित करना शुद्ध है। ३२८०. एस सत्तण्ह मज्जाया, ततो वा जे परेण तु। हेट्ठा सत्तण्ह थोवा उ, तेसिं वोच्छामि जो विधी।। यह मर्यादा सात मुनियों की है। उनसे आगे जो आठ आदि मुनि हों, उनकी भी यही विधि है। सात मुनियों से कम मुनियों की जो विधि है, वह मैं कहूंगा। ३२८१. पंचण्ह दोन्नि हारा, भयणा आरेण पालहारेसु। ते चेव य कुसपडिमा, नयंति हारावहारो वा॥ यदि मुनि पांच होते हैं, एक कालगत हो जाता है तो दो मुनि उसको वहन करते हैं। (तीसरा कुश आदि ले जाता है, चौथा Jain Education International वसतिपाल होता है। पांच से कम चार आदि में वसतिपाल और शववहन करने वालों का विकल्प होता है। वे ही कुश प्रतिमा को ले जाते हैं और वे ही शववहन करने वाले होते हैं। ३२८२. एक्को व दो व उवधिं, रत्तिं वेहास दिय असुण्णम्मि। एक्कस्स वि तह चेवा, छड्डण गुरुगा य आणादी। यदि तीन मुनि हों और एक कालगत हो जाए तो दो मुनि रात्री में उपधि को ऊपर रखकर, एक अथवा दो मुनि उस मृतक को वहन करे। दिन में परिष्ठापन करना हो तो उपाश्रय को अशून्यकर अथवा एक मुनि वहां रहे और एक उसको वहन करे। एक के परिष्ठापन की भी यही विधि है। यदि शव का विधिपूर्वक परिष्ठापन किए बिना, ऐसे ही छोड़कर मुनि चले जाते हैं तो उन्हें चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३२८३. गिहि-गोण-मल्ल-राउल,निवेदणा पाण कढणुड्डाहो। छक्कायाण विराधण, झामण सुक्खे य वावन्ने॥ साधुओं के अभाव में साधु के शव का गृहस्थ परिष्ठापन करते हैं। अथवा गृहस्थ बैलों से खींचकर ले जाते है। अथवा मल्लों के द्वारा शव का परिष्ठापन कराया जाता है। अथवा गृहस्थ राजकुल में निवेदन करते हैं। शव का चांडालों के द्वारा आकर्षण होने पर प्रवचन की निंदा होती है। ये प्रवचन विराधना के दोष हैं। असंयतों के द्वारा शव ले जाए जाने पर छहकाय की विराधना होती है। गृहस्थ उस शव का दहन करते हैं, तब भी छहकाय की विराधना होती है। शव के सूख जाने पर अथवा कुथित हो जाने पर द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों की विराधना होती है। ३२८४. तम्हा उ विहि तं चेव, वोढुं जे जइ पच्चला। नयंति दो वि निद्दोच्चे, सद्दोच्चे ठावए निसिं ।। यदि दो मुनि हों, रात्री में कोई भय न हो और वे दोनों उपधि और कलेवर को वहन करने में समर्थ हों तो कलेवर ले जाकर उसकी परिष्ठापना कर देते हैं। यदि रात में भय हो तो कलेवर को रातभर वहीं रखें (और दिन में विधिपूर्वक उसकी परिष्ठापना करे) ३२८५. अह गंतुमणा चेव, तो नयंति ततो च्चिय। ओलोयणमकुव्वंतो, असढो तत्थ सुज्झए। यदि मुनियों की दूसरे गांव जाने की इच्छा हो तो वे उपकरणों को साथ ले शव का परिष्ठापन कर वहीं से अन्य ग्राम चले जाएं। अशठभाव होने के कारण आलोचना न करने पर भी वे शुद्ध हैं, दोषभाक् नहीं हैं। ३२८६. छड्डेउं जइ जंती, नायमनाता य नाए परलिंग। जदि कुव्वंती गुरुगा, आणादी भिक्खु दिटुंतो॥ यदि कालगत को वहीं छोड़कर चले जाते हैं तो सोचा www.jainelibrary.org. For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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