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________________ २२२ २३४२. एतेसु य सव्वेसु वि, सुत्ते लहुओ उ अत्थे गुरुमासो । नाभीतोवर लहुगा, गुरुरामधो काकंडुणे ॥ अविनय के प्रकार - दूरस्थित होकर पूछता है, अथवा निषद्या में बैठा-बैठा पूछता है, (सुनता है) अत्यासन्न बैठ कर सुनता है। निविष्ट - उत्थित की चतुर्भंगी यह है (१) निविष्ट निविष्ट को पूछता है। (२) निविष्ट उत्थित को पूछता है । (३) उत्थित निविष्ट को पूछता है । (४) उत्थित उत्थित को पूछता है। हाथ न जोड़ना, प्रणाम न करना, दिशाओं को देखते हुए पूछना, अधोमुख अथवा ऊर्ध्वमुख कर सुनना, दूसरों के साथ बातचीत करते हुए सुनना, अनुपयुक्त होकर सुनना, हंसते हुए पूछना - इन सब स्थितियों में सूत्र को सुनने से प्रायश्चित्त लघुमास और अर्थ को सुनने से गुरुमास । सूत्र को सुनते हुए नाभी के ऊपर वाले शरीर भाग में खुजली करने पर चार लघुक का प्रायश्चित्त और अर्थ को सुनते हुए कंडूयन करने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। सूत्रश्रवण के समय नाभी के निचले भाग में कंडूयन करने पर प्रायश्चित्त है चार गुरुक-वह चाहे तप से गुरु हो अथवा काल से गुरु हो । २३४३. तम्हा वज्जंतेणं, ठाणाणेताणि पंजलुक्कुडुणा । सोयव्व पयत्तेणं, कितिकम्मं वावि कायव्वं ॥ इसलिए उपरोक्त अविनय के स्थानों का वर्जन करता हुआ हाथ जोड़कर उत्कटुक आसन में स्थित होकर प्रयत्नपूर्वक सूत्रअर्थ को सुनना चाहिए तथा कृतिकर्म भी करना चाहिए। २३४४. तेण वि धारेतव्वं, पच्छावि य उट्ठितेण मंडलिओ । वेडुट्ठनिसण्णस्स व, सारेतव्वं हवति भूओ ॥ व्याख्यानमंडली अथवा सूत्रमंडली में जो सुना उसे मंडली के उठ जाने पर भी श्रोता को धारण करना चाहिए। वह धारण करता हुआ वहां बैठा है, खड़ा है अथवा लेटा है तो क्वचित् स्खलित होने पर वाचनाचार्य को चाहिए कि वे उसे पुनः स्मृति दिलाएं। २३४५. अह से रोगो होज्जा, ताहे भासत एगपासम्मि । सन्निसण्णो तुयट्टो, व अच्छते णुग्गहपवत्तो ॥ यदि स्थविर के कोई रोग न हो तो व्याख्यानमंडली में वाचना करने वाले के एक पार्श्व में सम्यग्ररूप से निषण्ण अथवा विश्राम करने की मुद्रा में अनुग्रह से प्रवर्तित की भांति बैठता है । २३४६. थेरस्स तस्स किं तू, एद्देहेणं किलेसकरणेण । भणति एगत्तुवओगसद्धाजणणं च तरुणाणं ।। शिष्य पूछता है कि उस स्थविर को इतना क्लेश करने का प्रयोजन क्या है ? आचार्य कहते हैं-जो सूत्रार्थ के साथ एकत्वोपयुक्त होता है उसको सूत्रार्थ का सम्यक् परिज्ञान होता है तथा तरुण मुनियों में उस स्थिति को देखकर श्रद्धा उत्पन्न होती है। Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य २३४७. सो तु गणी अगणी वा, अणुभासंतस्स सुणति पासम्मि । न चएति जुण्णदेहो, होउं बद्धासणो सुचिरं ॥ वह गणी है अथवा अगणी- आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक, अग्रणी अथवा स्थाननियुक्त है, वह सूत्र मंडली में वाचना देने वाले के एक पार्श्व में सन्निषण्ण होकर सुनता है क्योंकि वह जीर्णदह होने के कारण लंबे समय तक बद्धासन होकर नहीं सुन सकता । २३४८. थेरो अरिहो आलोयणाय, आयारकप्पिओ जोग्गो । सा य न होति विवक्खे, नेव सपक्खे अगीतेसु ॥ स्थविर आलोचना देने के लिए अर्ह होता है। जो आचारप्रकल्पधारी होता है वही आलोचना के लिए योग्य होता है। वह आलोचना न विपक्ष के लिए होती है और न सपक्ष के लिए होती है, वह अगीतार्थ के लिए होती है। (श्रमणी श्रमण के लिए विपक्ष है और श्रमण श्रमणी के लिए विपक्ष है। श्रमणी श्रमणी के लिए सपक्ष और श्रमण श्रमण के लिए सपक्ष है ।) २३४९. संभोग त्ति भणिते, संभोगो छव्विहो उ आदीए । भेदप्पभेदतो वि य, णेगविधो होति नायव्वो । सांभोगिक (सांभोजिक) की बात जो सूत्र में कही है, उस संभोज के प्रथमतः छह प्रकार हैं। भेद-प्रभेद से उसे अनेक प्रकार का जानना चाहिए। २३५०. ओह अभिग्गह दाणग्गहणे अणुपालणाय उववाते । संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविधी मुणेयव्वो । ओघसंभोग, अभिग्रहसंभोग, दानग्रहणसंभोग, अनुपालनासंभोग और उपपातसंभोग । छठा प्रकार है-संवाससंभोग | २३५१. ओघो पुण बारसहा, उवधीमादी कमेण बोधव्वो । कातव्व परूवणया, एतेसिं आणुपुव्वी ॥ ओघसंभोग के बारह प्रकार हैं । उपधि आदि के क्रम से उनको जानना चाहिए और उनकी क्रमशः प्ररूपणा करनी चाहिए। २३५२. उवहि- सुत भत्तपाणे, दावणा य निकाए य, २३५३. कीकम्मस्स य करणे, अंजलिपग्गहे त्ति य। अब्भुट्ठाणे त्ति यावरे ॥ वेयावच्चकरणे ति य । समोसरण सन्निसेज्जा, कधाए य पबंधणा ॥ ओघसंभोग के बारह प्रकार ये हैं-उपधि, श्रुत, भक्तपान, अंजलि प्रग्रह, दापना, निकाच, अभ्युत्थान, कृतिकर्मकरण, वैयावृत्त्यकरण, समवसरण, सन्निषद्या तथा कथाप्रबंधन । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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