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________________ पांचवां उद्देशक २२१ विश्वस्त व्यक्तियों को नियुक्त कर दिया। देवता ने रात ही रात स्तूप पर सफेद पताका फहरा दी। प्रभात में सभी ने स्तूप पर सफेद पताका लहराते देखी। संघ जीत गया। २३३२. एवं ताव पणढे, भिक्खुस्स गणो न दिज्जते सुत्ते। नट्ठसुते मा हु गणं, हरेज्ज थेरे अतो सुत्तं॥ पूर्वोक्त प्रकार से प्रकल्पाध्ययन सूत्र प्रणष्ट-विस्मृत हो जाने पर भिक्षु को गण नहीं दिया जाता। यदि स्थविर आचार्य का यह सूत्र नष्ट हो जाता है-विस्मृत हो जाता है तो निश्चितरूप से उनसे गण का हरण कर लेना चाहिए। इसलिए प्रस्तुत सूत्र का प्रवर्तन हुआ है। २३३३. सुत्ते अणित लहुगा, अत्थे अणित धरेति चउगुरुगा। सुत्तेण वायणा अत्थे, सोही तो दो वऽणुण्णाया। उत्सर्गतः यदि प्रकल्पाध्ययन सूत्रतः स्मृत नहीं है और यदि वह गणको धारण करता है तो उसे चार लघुक का और अर्थतः विस्मृत है तो उसे चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। जिसको सूत्र विस्मृत नहीं है वह वाचना दे सकता है और जिसको अर्थ विस्मृत नहीं है वह प्रायश्चित्त देकर दूसरों की शोधि कर सकता है। इसलिए सूत्रतः और अर्थतः प्रकल्पाध्ययन से संपन्न मुनि ही गण को धारण करने के लिए अनुज्ञात है। २३३४. अवि य विणा सुत्तेणं, ववहारे तू अपच्चओ होति। तेणं उभयधरो ऊ, गणधारी सो अणुण्णातो।। बिना सूत्र का उच्चारण किए व्यवहार करने अर्थात् प्रायश्चित्त देने पर अप्रत्यय होता है। इसलिए जो उभयधरसूत्रतः और अर्थतः संपन्न है, वही गणधारी के रूप में अनुज्ञात २३३६. उभयधरम्मि उ सीसे, विज्जंते धारणा तु इच्छाए। मा परिभवनयणं वा, गच्छे व अणिच्छमाणम्मि॥ उभयधर शिष्य की विद्यमानता में भी यदि आचार्य गण को धारण करता है यह उसकी अपनी इच्छा है। वह सोचता है यदि मैं शिष्य को गण दूंगा तो दूसरे शिष्य मेरा पराभव करेंगे अथवा मुझे छोड़कर गच्छ लेकर चले जायेंगे अथवा यह गण उस उभयधर मुनि को गणधर के रूप में नहीं चाहता। इस स्थिति में उसको गणधर पद देने पर वे परिभव करेंगे अथवा अन्यत्र गच्छ में चले जाएंगे-इसलिए गण को स्वयं धारण करता है। २३३७. एमेव बितियसुत्तं, कारणियं सति बले न हावेति। जं जत्थ उ कितिकम्म, निहाणसम ओमराइणिए।। पूर्वसूत्र की भांति यह सूत्र भी कारणिक है। जो मुनि प्रकल्पाध्ययन का पुनः उज्ज्वालन कर रहा है, वह अपने शक्ति के होते विनय का अपनयन न करे। निधान के समान सूत्र और अर्थ का उज्ज्वालन करता हुआ मुनि अवमरत्नाधिक (अथवा समरत्नाधिक) के प्रति जो कृतिकर्म करणीय होता है, उसका परिपालन करे, उसको छोड़े नहीं। २३३८. सुत्तम्मि य चउलहुगा, अत्थम्मि य चउगुरुंच गव्वेणं । कितिकम्ममकुव्वंतो, पावति थेरा सति बलम्मि। उज्ज्वालन करता हुआ स्थविर मुनि, शक्ति के होने पर भी यदि कृतिकर्म नहीं करता है तो सूत्रविषयक उसे चार लघुक और अर्थविषयक चार गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। २३३९. उवयारहीणमफलं, होति निहाणं करेति वाऽणत्थं। इति निज्जराए लाभो, न होति विब्भंगकलहो वा।। जैसे निधान का उपचारहीन खनन करने पर वह अफल अथवा अनर्थकारी होता है, उसी प्रकार कृतिकर्म न करने पर उसे निर्जरा का लाभ नहीं होता तथा प्रांतदेवता कुपित होकर उसके ज्ञान को अज्ञान-विभंग कर देता है, अथवा कलह का उद्भव होता है। २३४०. दूरत्थो वा पुच्छति, अधव निसेज्जाय सन्निसण्णो उ। _अच्चासण्णनिविठ्ठट्टिते य चउभंग बोधव्वो।। २३४१. अंजलिपणामऽकरणं, विप्पेक्खंते दिसऽहो उहमुहं। भासंत अणुवउत्ते, व हसंते पुच्छमाणो उ॥ २३३५. असती कडजोगी पुण, अत्थे एतम्मि कप्पति धरे। जुण्णमहल्लो सुत्तं, न तरति पच्चुज्जयारेउ। उभयधर के अभाव में जो कृतयोगी (पहले उभयधर था, परंतु वर्तमान में नहीं है) हो, उसे यदि प्रकल्पाध्ययन के अर्थ की स्मृति है तो उसे गण धारण करना कल्पता है। जीर्ण और महान्-इसकी चतुर्भगी यह है-यहां महान् का अर्थ है तरुण। (१) जीर्ण है, महान् नहीं (२) जीर्ण नहीं, महान् है (३) जीर्ण भी और महान् भी (४) न जीर्ण, न महान् । यह चौथा विकल्प शून्य है। शेष तीन विकल्पों में से कोई भी विस्मृत सूत्र का पुनः उज्ज्वालन नहीं कर सकता, उसका अनुसंधान नहीं कर सकता। १. प्रस्तुत में 'महान्' का अर्थ है-वह तरुण जो वृद्धत्व में परिणत हो गया है। २. जैसे छोटे या बड़े निधान का उत्खनन करने वाला यदि उचित उपचार का पालन नहीं करता है तो उसे अनेक उपद्रवों (सांप, बिच्छु आदि के) का सामना करना पड़ता है। इसी प्रकार जो समरत्नाधिक और अवमरत्नाधिक के प्रति यथायोग्य विनय नहीं करता, उसे निर्जरा का लाभ नहीं होता। www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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