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________________ २२० सानुवाद व्यवहारभाष्य सकती है।) प्रकल्पाध्ययन विस्मृत हो गया हो और वह श्रमणी उसका पुनः २३२४. जदि से सत्थं नटुं पेच्छह से सत्थकोसगं गंतुं। अनुसंधान कर रही हो तो उसे गण दिया जाता है। हीरति कलंकितेसुं, भोगो जूतादिदप्पेणं॥ २३२९. एमेव य साधूणं, वाकरणनिमित्तछंद कधमादी। राजा ने अपने आदमियों से कहा-यदि इस वैद्य के शास्त्र बितियं गिलाणओ मे, अद्धाणे चेव थूभे य॥ नष्ट हो गए हों तो तुम उसके शास्त्रकोशक में जाकर देखो। वे गए इसी प्रकार साधुओं के विषय में जानना चाहिए। यदि और वहां उपलब्ध वैद्यक शास्त्र लाकर राजा को दे दिए। राजा व्याकरण, निमित्त, छंदशास्त्र, कथा आदि के अध्ययन के कारण ने उनको देखा। वे सारे शास्त्र कीड़ों द्वारा नष्ट कर दिए गए थे। प्रमादवश वह प्रकल्पाध्ययन विस्मृत कर देता है तो उसे गण राजा ने जान लिया कि वैद्य के द्यूत आदि दर्प के कारण ऐसा हुआ नहीं दिया जाता। जो द्वितीय आबाधा लक्षण यह है-ग्लान हो है। उसने वैद्य को निकाल दिया।' जाने, ग्लान की परिचर्या में संलग्न रहने, अवमौदर्य, अशिव २३२५. चुक्को जदि सरवेधी, तहा वि पुलएह से सरे गंतुं। आदि के कारण, मार्गगमन के कारण, स्तूप आदि के कारण यदि __ अकलंक कलंकं वा, भग्गमभग्गाणि य धणूणि॥ प्रकल्पाध्ययन विस्मृत कर ले और पुनः उसका अनुसंधान करे एक राजा के पास स्वरवेधी योधा था। युद्ध के समय तो उसे गण दिया जा सकता है। उसको असफल देखकर राजा ने अपने पुरुषों से कहा-जाओ, २३३०. मधुरा खमगातावण, देवय आउट्ट आणवेज्ज त्ति। उसके पास जो बाण हैं, उन्हें देखो कि क्या वे मूलरूप में हैं किं मम असंजतीए, अप्पत्तिय होहिती कज्जं॥ अथवा जंग लगे हुए हैं ? उसके धनुष्य भग्न हैं अथवा अभग्न? वे २३३१. थूभविउव्वण भिक्खू, विवाद छम्मास संघ को सत्तो। गए। देखा, सारे बाण जंग लगे हुए हैं और धनुष्य टूटे हुए हैं। खमगुस्सग्गा कंपण, खिसण सुक्का कयपडागा। राजा ने जान लिया कि प्रमाद के कारण ऐसा हुआ है। उसको मथुरा नगरी में एक तपस्वी था। वह आतापना लेता था। सेना से निकाल दिया। उसकी इस कठोर चर्या को देखकर एक देवता उसका सम्मान २३२६. फालहियस्स वि एवं, करते हुए वन्दना कर बोला-भगवन् ! मुझे जो करना है उसके जइ फलओ भग्गलुग्ग तो भोगो। लिए आप आज्ञा दें। हीरति सव्वेसिं वि य, तपस्वी ने कहा-क्या मेरा कार्य असंयती से होगा? यह न भोगहारो भवे कज्जे॥ सुनकर देवता के मन में तपस्वी के प्रति अप्रीति हो गई। फिर भी एक साग-सब्जी उगाने की बाड़ी थी। एक माली उसकी उसने कहा-मुझसे आपका कार्य सम्पन्न होगा। देवता ने एक देखभाल के लिए रखा गया। कालांतर में बाड़ी के स्वामी ने सर्वरत्नमय स्तूप का निर्माण किया। वहां भगवे वस्त्रधारी भिक्षु सोचा-यदि बाड़ी भग्न होगी अथवा लुग्न-सूखगई होगी तो रक्षक आये और बोले-यह स्तूप हमारा है। इस स्तूप के कारण संघ का को निकाल देंगे। क्योंकि प्रयोजन के उपस्थित होने पर कुटुम्ब के उनके साथ छह माह तक विवाद चला। संघ ने पूछा-इस संघर्ष लिए भोगाहार नहीं होगा। गवेषणा करने पर वाडी को नष्ट और को मिटाने के लिए कौन समर्थ है ? एक व्यक्ति बोला-अमुक सूखी देखकर रक्षक का वृत्तिच्छेद कर दिया। तपस्वी इसके लिए समर्थ है। तब संघ ने तपस्वी को बुलाकर २३२७. एवं दप्पपणासित, न वि देंति गणं पकप्पमज्झयणे। कहा-तपस्विन्! आप आराधना कर देवता का आह्वान करें। आबाहेणं नासिते, गेलण्णादीण दलयंति॥ तपस्वी ने आराधना की। देवता उपस्थित होकर बोला-आदेश इसी प्रकार जो दर्प-प्रमाद से प्रकल्पाध्ययन को विस्मृत दें, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं? तपस्वी ने कहा-वैसा कर देती है तो आचार्य उसे गण नहीं देते। यदि आबाधा- कार्य करो जिसमें संघ की विजय हो। तब देवता ने क्षपक की ग्लानत्व आदि के कारण विस्मृत हो गया हो और उसका पुनः भर्त्सना करते हुए कहा-'आज मेरे जैसे असंयती से कार्य कराने अनुसंधान कर लिया हो तो उसे गण दिया जा सकता है। का प्रयोजन उपस्थित हो गया है। अब एक उपाय बताता हूं। २३२८. गेलण्णे असिवे वा, ओमोयरियाय रायदुढे य। आप राजा के पास जाकर कहें-यदि यह स्तूप इन भिक्षुओं का है एतेहि नासियम्मी, संधेमाणीय देति गणं॥ तो कल इस स्तूप पर लाल पताका फहराएगी और यदि यह स्तूप ग्लान हो जाने अथवा ग्लान की परिचर्या करते रहने से, हमारा होगा तो सफेद पताका दिखेगी। वे राजा के पास गए। अशिव अथवा अवमौदर्य-दुर्भिक्ष के कारण, राजा के प्रद्वेष के सारी बात कही। राजा ने यह उक्ति स्वीकार कर ली। राजा ने कारण वहां से पलायन करने पर-इन कारणों से यदि दोनों पक्षों को बात बता दी और स्तूप की रक्षा के लिए अपने १-२-३. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, कथा परिशिष्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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