SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गरुप . चुण्ण पांचवां उद्देशक २१९ २३१२. जइ वि य पुरिसादेसो, २३१८. दंडग्गहनिक्खेवे आवसियाए निसीहियाऽकरणे। पुव्वं तह वि य विवच्चओ जुत्तो। गुरुणं च अप्पणामे, य भणसु आरोवणा का उ॥ जेण समणी उ पगता, तुम कहो, दंडक को बिना प्रमार्जन और प्रत्युपेक्षा किए पमादबहुला य अथिरा य॥ लेने-रखने में, आवश्यिकी और नैषेधिकी न करने पर तथा गुरु यद्यपि पूर्व अर्थात् दो अध्ययनों में पुरुषादेश के आधार पर को प्रणाम न करने पर क्या आरोपणा प्रायश्चित्त आता है। श्रमणों के विषय में कहा था, यहां जो विपर्यय है, वह भी युक्त है, २३१९. पुट्ठा अनिव्वहंती, किध नटुं ऽबाधतो पमादेणं। क्योंकि प्रायः साध्वियां प्रमादबहुल और अस्थिर होती हैं। साहेति पमादेणं, सो य पमादो इमो होति।। २३१३. तेवरिसा होति नवा, अट्ठारसिया तु डहरिया होति। पूछने पर यदि वह सम्यक् उत्तर नहीं देती है तो आचार्य तरुणी खलु जा जुवती, चउरा दसगा य पुव्वुत्ता॥ पुनः पूछते हैं कि आचारप्रकल्पाध्ययन नष्ट कैसे हुआ? क्या तीन वर्ष की व्रतपर्यायवाली श्रमणी नव (नई), जन्मपर्याय आबाधा से अथवा प्रमाद से? वह यदि कहे-प्रमाद से। वह प्रमाद से अठारह वर्ष तक की श्रमणी डहरिका और जब तक युवति है यह होता हैतब तक वह तरुणी है। अथवा पूर्वोक्त (तीसरे उद्देशक में कथित) २३२०. धम्मकहनिमित्तादी, तु पमादो तत्थ होति नायव्वो। कथन के अनुसार चालीस वर्ष वाली तरुणी होती है। मलयवति-मगधसेणा, तरंगवइयाइ धम्मकहा। २३१४. सा एय गुणोवेता, सुत्तत्थेहिं पकप्पमज्झयणं। धर्मकथा में व्यापृत रहना तथा निमित्त आदि में संलग्न समधिज्जिता इतो यावि, आगता नवसु या अण्णा॥ रहना-यह प्रमाद उस श्रमणी में होता है। धर्मकथा में मलयवती, जिस तरुणी श्रमणी ने प्रकल्प नामक अध्ययन को सूत्र मगधसेना, तरंगवती आदि को पढ़ते रहने के कारण प्रमादवश और अर्थ से सम्यग् प्रकार से पढ़ लिया है, इस गुण से युक्त हो वह श्रुत नष्ट हो जाता है। गई है, वह प्रवर्तनी के योग्य है-ऐसा आचार्य ने जान लिया। इधर २३२१. गह-चरिय-विज्ज-मंता, अन्य गण से एक श्रमणी ने आकर कहा चुण्ण-निमित्तादिणा पमादेणं। २३१५. अत्थेण मे पकप्पे, समाणितो न य जितो महं भंते।। नट्ठम्मी संधयती, अमुगा मे संघाडं, ददंतु वुत्ता तु सा गणिणा।। असंधयंती व सा न लभे॥ भंते! अर्थ से मैं आचारप्रकल्प समाप्त कर चुकी हूं। किंतु ग्रहचरित-ज्योतिषशास्त्र, विद्या, मंत्र, चूर्ण, निमित्त आदि वह मेरे परिचित नहीं हुआ है। जो अमुक श्रमणी प्रवर्तनी के रूप में व्याप्त होने के प्रमाद से यदि प्रकल्पाध्ययन पूर्ण विस्मृत हो में संभावित है उसे आप संघाट दें। यह कहने पर आचार्य ने जाता है और वह श्रमणी यदि उसका पुनः संधान करती है अथवा कहा-आर्ये! आचारप्रकल्प का संघाट दो। नहीं करती, फिर भी उसे यावज्जीवन गण प्राप्त नहीं होता, उसे १३१६. सा दाउं आढत्ता, नवरि य णटुं न किंचि आगच्छे। प्रवर्तनी आदि पद नहीं मिलता। एमेव मुणमुणंती, चिट्ठति मुणिया य सा तीए॥ २३२२. जावज्जीवं तु गणं, इमेहि नाएहि लोगसिद्धेहिं। वह संघाट देने लगी, अर्थात् पुनरावर्तन और व्याख्या अइपाल-वेज्ज-जोधे, धणुगादी भग्गफलगेणं ।। करने लगी। सारा अध्ययन विस्मृत हो गया था, कुछ भी यावज्जीवन गण प्राप्त नहीं होता-इसके लिए लोकसिद्ध स्मृतिपटल पर नहीं था। वह केवल अव्यक्त अक्षरों से मुनमुनाती उदाहरण ये हैं-अजापालक, वैद्य, योधा। योधा उदाहरण से रही। इसलिए जान लिया कि इसे कुछ भी याद नहीं है। संबंधित है-धनु आदि। भग्नफलक। २३१७. पुणरवि साहति गणिणो, २३२३. खेलंतेण तु अइया, पणासिया जेण सो पुणो न लभे। सा नट्ठसुता दलाह मे अण्णं। सूलादिरुजा नट्ठा, वि लभति एमेव उत्तरिए। अब्भक्खाणं पि सिया, एक अजापालक ने खेलने के प्रमाद से अजाओं को नष्ट कर वाहेउं होतिमा पुच्छा॥ डाला। उसे पुनः अजापालन का कार्य नहीं मिला। एक दूसरा वह पुनः आचार्य को कहती है-इसका श्रुत नष्ट हो गया है। अजापातक था। उसके शूल आदि का रोग हो गया। अजाएं नष्ट आप मुझे अन्य सहायक दें। तब आचार्य सोचे-इसका श्रुत नष्ट हो गई। उसे पुनः उसी काम पर रख दिया। इसी प्रकार लोकोत्तर हो गया है अथवा नहीं, कौन जाने। झूठा अभ्याख्यान भी हो में भी जानना चाहिए। (इसी प्रकार जो श्रमणी प्रमादवश सकता है। यह सोचकर आचार्य उसको बुलाकर इस प्रकार प्रकल्पाध्ययन को भूल जाती है, उसे गण नहीं मिलता। जो पृच्छा करते हैं ग्लानत्व के कारण वैसा होता है तो उसे गण की पुनः प्राप्ति हो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy