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________________ पांचवां उद्देशक २३०४. उद्देसम्मि चउत्थे, जा मेरा वण्णिता तु साहूणं। २३०८. वीसुभिताय सव्वासि, गमणमद्धद्ध जाव दोण्हेक्का। सा चेव पंचमे संजतीण गणणाय नाणत्तं॥ संबंधि इत्थिसत्थे, भावितमविकारितेहिं वा।। चौथे उद्देशक में जो मर्यादा साधुओं के लिए वर्णित है, वही प्रवर्तिनी के कालगत हो जाने पर शेष सभी साध्वियां मर्यादा पांचवें उद्देशक में साध्वियों के लिए है। केवल गणना में ___ आचार्य के पास जाएं। यदि मार्ग अपायबहुल हो तो परिणतवय नानात्व है। वाली साध्वियां जाएं। अथवा मंदरूप वाली तरुण साध्वियां तथा २३०५. वुत्तमधवा बहुत्तं, पिंडगसुत्ते चउत्थचरमम्मि। स्थविर साध्वियां जाएं। समुदाय का चौथा भाग जाए। अथवा दो ___ अबहुत्ते पडिसेहं, काउमणुण्णा बहूणं तु॥ या अंततः एक साध्वी अवश्य जाए। वे साध्वियां अपने संबंधी अथवा चौथे उद्देशक के चरम पिंडसूत्र में बहुत्व की बात स्त्री-सार्थ के साथ, उनके अभाव में असंबंधी स्त्री-सार्थ के कही गई है। पांचवें उद्देशक में साध्वियों के लिए अबहुत्व का साथ, उसके अभाव में भावित पुरुषों के साथ, उनके अभाव में प्रतिषेध कर बहुतों की अनुज्ञा दी है। अविकारी पुरुषों के साथ जाएं। अंततः जिस देश में जो लिंग २३०६. संघयणे वाउलणा, छटे अंगम्मि गमणमसिवादी। पूजित हो, उस लिंग को धारण कर उन-उन प्रदेशों से गमन करे। सागर जाते जतणा, उडुबद्धालोयणा भणिता।। २३०९. असिवादिएसु फिडिया, सूत्रकदम्बक की प्रवृत्ति के पांच कारण-प्रवर्तिनी कालगते वावि तम्मि आयरिए। आत्मतृतीय और गणावच्छेदिनी आत्मचतुर्था के गमन के पांच तिगथेराण य असती, कारण-संहनन, गण में सूत्रार्थ पठन की व्याकुलना-व्याघात, गिलाणओधाण सुत्ता उ॥ छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा के स्मरण-परावर्तन के लिए गमन, अशिव आदि स्थिति में गमन, अंग साहित्य सागरतुल्य है। अशिव आदि कारणों से जो अपने आचार्य से विलग हो अभिनवगृहीत होने के कारण पुनःपुनः परावर्तनीय है, इसलिए गई अथवा पूर्व आचार्य कालगत हो गए, कुल, गण और गमन-ये पांच कारण हैं। जात का अर्थ है कल्प। ऋतुबद्धकाल में संघ-इन तीन प्रकार के स्थविरों के अभाव में साध्वी खिन्न हो गई साध्वियों का सप्तक और वर्षाकाल में नवक-यह समाप्तकल्प है। अथवा वहां से निकल कर अन्य आचार्य के पास जाने की भावना इससे न्यून असमाप्तकल्प है। प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-जात प्रबल हो गई-ऐसी स्थिति में ग्लान और अवधावन के ये दो सूत्र और अजात (गीतार्थ, अगीतार्थ)। इसमें यतना। ऋतुबद्धकाल में निर्मित हुए। निरंतर साध्वियों को भेजकर अवलोकना करनी चाहिए। २३१०. साहीणम्मि वि थेरे, पवत्तिणी चेव तं परिकधेति। २३०७. जध भणित चउत्थे पंचमम्मि तहेव इमं तु नाणत्तं। एसा पवत्तिणी भे, जोग्गा गच्छे बहुमता य॥ गमणित्थि मीस संबंधि, वज्जिते पूजिते लिंगे॥ अथवा स्वाधीन स्थविर के परिज्ञान के लिए उसी को जैसे चौथे उद्देशक में निर्ग्रन्थसूत्रों का व्याख्यान कहा गया प्रवर्तनी कहते हुए बताते हैं-भगवन् ! यह प्रवर्तिनी के योग्य है। है वैसे ही पांचवें उद्देशक में निर्ग्रन्थिनियों के सूत्रों की व्याख्या यह गच्छ में बहुमान्य है। जाननी चाहिए। उसमें यह नानात्व है। प्रवर्तिनी के कालगत हो २३११. अब्भुज्जयं विहारं, पडिवज्जिउकाम दुस्समुक्कट्ठ। जाने पर आर्यिकाएं आचार्य के पास चली जाएं-स्त्रियों के साथ, जह होती समणाणं, भत्तपरिण्णा तथा तासिं। अथवा मिश्र-स्त्री-पुरुषों के साथ, अथवा संबंधी पुरुषों के अभ्युद्यत विहार स्वीकार करने वाले श्रमणों के लिए जो साथ, अथवा संबंधी वर्जित सज्जन पुरुषों के साथ, अथवा जहां दुःसमुत्कृष्ट कहा था, वही भक्तपरिज्ञा स्वीकार करने वाली जो पूजित लिंग हो वैसा लिंग बना कर जाएं। साध्वियों के लिए दुःसमुत्कृष्ट है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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