SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ ३. प्रवचन से साधर्मिक, लिंग से नहीं-श्रावक । प्रवचन से साधर्मिक, न दर्शन से आदि की योजना क्षायोपशमिक दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि की अपेक्षा से योजनीय हैं। ९९५. नामं ठवणा दविए, भावे य चउव्विहो विहारो उ । विविधपगारेहि रयं, हरती जम्हा विहारो उ ॥ विहार के चार प्रकार हैं-नामविहार, स्थापनाविहार, द्रव्यविहार और भावविहार । जो विविध प्रकार से कर्मरजों का हरण करता है, वह है विहार अर्थात् भावविहार । ९९६. आहारादीणट्ठा, जो य विहारो अगीत- पासत्थे । जो यावि अणुवउत्तो, विहरति दव्वे विहारो उ ॥ जो आहार आदि के लिए अगीतार्थ तथा पार्श्वस्थ मुनियों के साथ विहरण करता है अथवा जो अनुपयुक्त होकर विहरण करता है - यह द्रव्यविहार है। ९९७. गीतत्थ तु विहारो, बितिओ गीतत्थनिस्सितो होति । एत्तो ततियविहारो, नाणात जिणवरेहिं ॥ गीतार्थ मुनि का विहार तथा गीतार्थ मुनि की निश्रा में होने वाला विहार-ये दो ही भावविहार हैं। जिनेश्वर ने तीसरे विहार की अनुज्ञा नहीं दी है। ९९८. जिणकप्पितो गीतत्थो, परिहारविसुद्धिओ वि गीयत्थो । यथे इडिदुगं, सेसा गीयत्थनिस्साए || जनकल्पिक गीतार्थ होता है। परिहारविशुद्धिक भी गीतार्थ है । गच्छ में गीतार्थविषयक ऋद्धिद्विक है-आचार्य और उपाध्याय । शेष प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदक- ये गीतार्थनिश्रित होते हैं । ९९९. चोदेइ अगीयत्थे, किं कारण मो निसिज्झति विहारो । सुण दिट्ठतं चोदग!, सिद्धकरं तिण्ह वेतेसिं ॥ शिष्य प्रश्न करता है-आर्य ! अगीतार्थ के विहार का निषेध क्यों किया गया ? आचार्य कहते हैं-वत्स ! गीतार्थ, अगीतार्थ तथा गीतार्थनिश्रित विहार-इन तीनों में जो सिद्धिकर विहार है, उस विषयक तुम दृष्टांत सुनो। १०००. तिविधे संगेल्लम्मी, जाणंते निस्सिते अजाणते। पाधि छित्तकुरूणे, अडवि जले सावए तेणा ।। एक नगर में संगिल्ल-गायों के समुदाय की रक्षा के लिए तीन प्रकार के रक्षक नियुक्त हुए जानकार, निश्रित (दूसरे जानकार के आश्रय में काम करने वाला) तथा अजानकार । जानकार और दूसरे जानकार की निश्रा में गायों की रक्षा करने वाला- दोनों अपने कार्य में सफल थे। तीसरा अजानकार था। वह १. आचार्य और उपाध्याय - ये दो स्थान नियुक्त हैं। शेष सारे स्थान अनियुक्त हैं। वे गीतार्थ भी हो सकते हैं और अगीतार्थ भी । अतः Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य पाधि--खेतों के मध्य से आने-जाने का मार्ग नहीं जानता था। गायें धान के खेतों में आती-जाती धान को चर जाती । खेत के स्वामी उससे क्षेत्रकुरुण - खेत में हुई फसल की हानि वसूल करते। वह सुरक्षित स्थानों की अजानकारी के कारण गायों को अटवी में ले जाता, नदी प्रदेश में ले जाता तथा ऐसे स्थानों पर ले जाता जहां श्वापद- सिंह, व्याघ्र आदि रहते हों अथवा जहां चोरों की अवस्थिति हो। ये सारे आपत्ति के स्थान हैं। गायें नष्ट हो गईं। १००१. एते सव्वे दोसा, जो जेण उ निस्सितो य परिहरति । निवडइ दोसेसुं पुण अयाणतो नियमया तेसु ॥ जो जानकार है तथा जो उसकी निश्रा में रहता है वह इन सारे दोषों का परिहार कर लेता है। जो अजानकार है वह नियमतः इन दोषों में फंस जाता है। १००२. एवं उत्तरियम्मि वि, अयाणतो निवडई तु दोसेसुं । मग्गाईसु इमेसू, ण य होती निज्जराभागी ॥ अजानकार व्यक्ति इन मार्गों को पार कर जाने पर भी दोषों में फंस जाता है। वह निर्जरा का भागी नहीं होता । १००३. मग्गे सेहविहारे, मिच्छत्ते एसणादि विसमे य । सोधी गिलाणमादी, तेणा दुविधा व तिविधा वा ॥ मार्ग, शैक्ष, विहार, मिथ्यात्व, एषणा, विषम, शोधि तथा ग्लान आदि के विषय में दोष होते हैं। दो प्रकार के अथवा तीन प्रकार के चोरों से भी दोष होते हैं। (यह द्वार गाथा है। इसका विस्तार अगली गाथाओं में है ।) १००४. मग्गं सद्दव रीयति, पाउस उम्मग्ग अजतणा एवं । सेहकुलेसु य विहरति, नऽणुवत्तति ते ण गाहेति ॥ मुनि द्रवचारी होकर मार्ग में, प्रावृड् में तथा उन्मार्ग में अज्ञतया अथवा अयतनापूर्वक जाता है तो संयमविराधना तथा आत्मविराधना होती है। वह शैक्ष (अभिनव व्रतधारी) कुलों में जाता है, उनको अनुवर्तित नहीं करता-धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा को वृद्धिंगत नहीं करता, उनको श्रावकधर्म का ग्रहण नहीं करवाता (यह उसका दोष है।) १००५. दसुदेसे पच्चंते, वइगादि विहार पाणबहुले य । अप्पाणं च परं वा, न मुणति मिच्छत्तसंकंतं ॥ वह दस्युदेश - चौरदेश में, प्रत्यंत- म्लेच्छ देश में विहार करता है । व्रजिकादि में, प्राणिबहुल प्रदेश में विहार करता है तो संयमविराधना होती है। वह स्वयं को तथा पर को मिथ्यात्वसंक्रांत नहीं जानता (वह संसारप्रवर्धक होता है।) १००६. आहार- उवधि सेज्जा, उग्गमउप्पायणेसणकडिल्ले । लग्गति अवियाणतो, दोसे एतेसु सव्वेसु ॥ गीतार्थ की निश्रा से विहार करना चाहिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy