SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवां उद्देशक २८५ आदि में फंस गया। पांच व्यक्तियों ने राजा को बचाया। इन पांचों ३११३. वासत्ताणावरिता, णिक्कारण ठंति कज्जे जतणाए। में से एक ने अतिसाहस का परिचय दिया था। राजा ने प्रसन्न हत्थच्छिंगुलिसण्णा, पोत्तावरिता व भासंति॥ होकर, इस एक के अतिरिक्त, चारों से कहा-तुम नगर में जहां ऐसी स्थिति में मुनि निष्कारण कोई चेष्टा नहीं करते। चाहो घूमो। दुकानों, अन्यान्य मार्गों, त्रिक-चतुष्क आदि स्थानों वर्षात्राण से आवृत्त होकर स्थित रहते हैं। प्रयोजन होने पर से जो चाहो वह आहार आदि की सामग्री तथा वस्त्र आदि लो। यतनापूर्वक हाथ या अंगुलियों के इशारे से व्यवहार करते हैं तथा उनका मूल्य राज्य से चुकाया जाएगा। वे चारों प्रसन्न हो गए। जो मुंह पर कपड़ा लगाकर बोलते हैं। अतिसाहसिक था, जिस पर राजा विशेष संतुष्ट हुआ था, उससे ३११४. पंसू य मंसरुधिरे, केस-सिलावुट्ठि तह रउग्घाते। कहा-तुम नगर में गृह या अगृह-कहीं से भी जो चाहो ले सकते मंसरुधिरऽहोरत्तं, अवसेसे जच्चिरं सुत्तं॥ हो, राज्य से उसका मूल्य दिया जाएगा। चारों को गृह आदि के औत्पातिक अस्वाध्यायिक-पांशुवृष्टि, मांसवृष्टि, रुधिरप्रवेश की आज्ञा नहीं दी थी, केवल इसको ही वह प्राप्त हुई थी। वृष्टि, केशवृष्टि तथा शिलावृष्टि और रजोद्घात। मांसवृष्टि और यह अस्वाध्यायिक के प्रसंग में उपमा दृष्टांत है। रुधिरवृष्टि में अहोरात्र तक सूत्र नहीं पढ़ा जाता। शेष में तब तक ३१०९. पढमम्मि सव्वचेट्ठा, सज्झाओ वा निवारतो नियमा। सूत्र नहीं पढ़ा जाता जब तक पांशु आदि का पात होता है। सेसेसु असज्झाओ, चेट्ठा न निवारिया अण्णा॥ ३११५. पंसू अच्चित्तरजो, रयस्सलाओ दिसा रउग्घातो। प्रथम अस्वाध्यायिक संयमोपघाती में सारी कायिकी और तत्थ सवाते निव्वातए य सुत्तं परिहरंति॥ वाचिकी चेष्टा तथा स्वाध्याय का नियमतः निवारण किया जाता पांशु का अर्थ है-पांडुरवर्णवाली अचित्तरज। रजोद्घात है। शेष चार प्रकार की अस्वाध्यायिकों में केवल स्वाध्याय में अर्थात् जिसमें दिशाएं रजस्वला हो जाती है, अंधकार व्याप्त हो अस्वाध्याय का निवारण किया गया है, अन्य चेष्टाओं का जाता है। पांशुवृष्टि और रजोद्घात के समय रजें वायु के साथ निवारण नहीं किया गया है। अथवा ऐसे ही गिरती हों तो सूत्र का परिहार उनके पतनकाल ३११०. महिया य भिन्नवासे, सच्चित्तरए य संजमे तिविधे।। तक किया जाता है। दव्वे खेत्ते काले, जहियं वा जच्चिरं सव्वं॥ ३११६. साभाविय तिण्णि दिणा, संयमे अर्थात् संयमोपघातिनी अस्वाध्यायिक के तीन सुगिम्हए निक्खिवंति जइ जोगं। प्रकार हैं-महिका, भिन्नवर्षा तथा सचित्तरज। द्रव्य, क्षेत्र, काल तो तम्मि पडतम्मी, और भाव से इनका वर्जन करना चाहिए। द्रव्यतः यही विविध कुणंति संवच्छरज्झायं ।। अस्वाध्यायिक क्षेत्रतः जितने क्षेत्र में गिरती हैं, कालतः जितने यदि सुग्रीष्म में (उष्णकाल के प्रारंभ में अर्थात् चैत्र शुक्ल समय तक ये गिरती हैं, भावतः समस्त कायिकी आदि चेष्टाओं पक्ष में) कोई निरंतर तीन दिनों के योग का निक्षेप करता है (चैत्र का वर्जन। शुक्ला एकादशी से त्रयोदशी तक अथवा त्रयोदशी से पूर्णिमा ३१११. महिया तु गन्भमासे, वासे पुण होति तिन्नि उ पगारा। तक) और इसमें स्वाभाविकरूप से पांशुवृष्टि और रजोद्घात बुब्बुय तव्वज्ज फुसी, सच्चित्तरजो य आतंबो॥ होता है तो संवत्सर पर्यंत (सर्वकाल पर्यंत) स्वाध्याय करते हैं। महिका गर्भमास (कार्तिक से माघ) में गिरती है।वर्षा के ३११७. गंधव्वदिसाविज्जुक्क, गज्जिते जूव जक्खलित्ते य। तीन प्रकार होते हैं-बुबुद, बुबुदवयं, स्पर्शिका (फुआरों एक्केक्कपोरिसी गज्जितं तु दो पोरिसी हणति॥ वाली वर्षा)। सचित्तरज आताम्र-ताम्रवर्ण वाली होती है। गंधर्वनगर, दिग्दाह, विद्युत्, उल्का, गर्जित, यूपक, ३११२. दव्वे तं चिय दव्वं, खेत्ते जहियं तु जच्चिरं काले। यक्षालिप्त-ये अस्वाध्यायिक हैं। गंधर्वनगर आदि में एक-एक ठाणादिभासभावे, मोत्तुं उस्सासउम्मेसं॥ पौरुषी का तथा गर्जित में दो पौरुषी का अस्वाध्यायिक होता है। द्रव्य में महिका आदि तीनों प्रकार का वर्जन किया जाता है। ३११८. गंधव्वनगरनियमा, सादिव्वं, सेसगाणि भजिताणि। क्षेत्रतः जिस क्षेत्र में गिरते हैं और कालतः जितने समय तक ये जेण न नज्जंति फुडं, तेण य तेसिं तु परिहारो॥ गिरते हैं-उतने क्षेत्र और काल का वर्जन किया जाता है। इनमें गंधर्वनगर नियमतः सदैव ही होता है, शेष वैकल्पिक होते उच्छ्वास-निःश्वास की क्रिया के अतिरिक्त गमनागमन आदि हैं-कदाचित् सदैव और कदाचित् स्वाभाविक होते हैं। कायिकी चेष्टा तथा भाषा का वर्जन किया जाता है। स्वाभाविक में स्वाध्याय का परिहार नहीं होता किंतु यह स्पष्टरूप १. यह उस परम साहसिक पुरुषस्थानीय है। जैसे उसका प्रचार नगर में २. चार अस्वाध्यायिकों की उपमा चार उन पुरुषों के सदृश है। सर्वत्र है, वैसे ही मुनि की समस्त संयम व्यापारों में प्रवृत्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy