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________________ २८४ उपविष्ट देखकर विश्वस्त होते हैं। इस प्रकार दुर्ग, गूढ़प्रच्छन्नप्रदेश में होने वाले विकारदोष नहीं होते । ३०९५. चिलिमिलि छेदे ठायति, जह पासति दोण्ह वी पवाएंतो । दिट्ठी संबंधादी, इमे य तहियं न वाएज्जा ॥ वाचना देते हुए आचार्य चिलिमिली के छेद-अंत में बैठे जिससे वह दोनों वर्गों को देख सके। जो संयत साध्वियों की दृष्टि से अपनी दृष्टि बांधते हैं (मिलाते हैं) उनको तथा इन निम्नोक्त व्यक्तियों को वाचना नहीं देनी चाहिए। ३०९६. संगार मेहुणादी य, जे यावि धितिदुब्बला । अण्णेण वायते ते तु, निसिं वा पडिपुच्छणं ॥ जो आर्यिकाएं सविकार हैं, जिनका मैथुनिक भर्त्ता आदि है, जो धृति से दुर्बल है - इनको स्वयं वाचना न दें। अन्य अर्थात् उपाध्याय आदि से वाचना दिलानी चाहिए। रात्री में संदिग्ध स्थानों की प्रतिपृच्छा। ३०९७. असंतऽण्णे पवायंते, पढंति सव्वे तहिं अदोसिल्ला । अणिसण्णथेरिसहिया, थेरसहायो पवाएंतो ॥ अन्य उपाध्याय आदि प्रवाचक न हो तो सभी आचार्य के पास पढ़ते हैं और वे सब अदोषी हैं। संयतियां स्थविरा साध्वियों के साथ खड़े-खड़े प्रवाचक स्थविर से वाचना लेती हैं। स्थविर भी अपने सहायकयुक्त होता है। वह सबको ध्यानपूर्वक देखता है । ३०९८. जा दुब्बला होज्ज चिरं व झाओ, ताधे निसण्णा न य उच्चसद्दा । पलंबसंघाडि न उज्जला य, अणुण्णता वास तिरंजली य ॥ जो संयती दुर्बल है और स्वाध्याय चिरकालिक है तो वह बैठकर पढ़ती है किंतु आलापक को उच्चस्वरों में न बोले । उसकी संघाटी प्रलंब हो, उज्जल छोटी न हो। वह ऊर्ध्वमुखी न हो तथा वस्त्रांत से अंजलि को तिरोहित रखे। ३०९९. एतविहिविप्पमुक्को, संजतिवग्गं तु जो पवाएज्जा । मज्जायातिक्कंतं, तमणायारं वियाणाहि ॥ इस विधि से विप्रमुक्त होकर जो मुनि संयतिवर्ग को प्रवाचना देता है, उसे मर्यादातिक्रांत मर्यादाविहीन और आचाररहित जानना चाहिए। ३१००. सज्झाओ खलु पगतो, वितिगिट्ठे नो य कप्पति जधा उ । एमेव असज्झाए, तप्पडिवक्खे तु सज्झाओ ॥ स्वाध्याय प्रकृत है। व्यतिकृष्ट काल में वह नहीं कल्पता । उसी प्रकार अस्वाध्यायिक काल में भी उसका निषेध है। उसके Jain Education International सानुवाद व्यवहारभाष्य प्रतिपक्ष अर्थात् स्वाध्यायिक काल में स्वध्याय कल्पता है। ३१०१. असज्झायं च दुविधं, आतसमुत्थं च परसमुत्थं च । जं तत्थ परसमुत्थं, तं पंचविहं तु नायव्वं ॥ अस्वाध्यायिक के दो प्रकार हैं- आत्मसमुत्थ और परसमुत्थ । जो परसमुत्थ हैं उसको पांच प्रकार का जानना चाहिए। ३१०२. संजमघाउप्पाते, सादिव्वे वुग्गहे य सारीरे। एतेसु करेमाणे, आणादि इमो तु दिट्ठतो ॥ वे पांच प्रकार ये हैं-संयमोपघातिक, औत्पातिक, दिव्य, व्युद्ग्राहिक तथा शारीरिक । इनमें स्वाध्याय करने वाले के आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। यहां यह दृष्टांत हैं। ३१०३. मेच्छभयघोसणनिवे, दुग्गाणि अतीह मा विणिस्सिहिहा । फिडिता जे उ अतिगता, इतरे हियसेस निवदंडो ॥ एक राजा ने म्लेच्छों के भय से राज्य में यह घोषणा कराई कि सारी जनता दुर्ग में आ जाए। म्लेच्छों के हाथों वे विनाश को प्राप्त न हों। जो दुर्ग में आ गए वे म्लेच्छों के भय से शून्य हो गए और जो नहीं आए वे मारे गए तथा जो शेष बचे उनको राजा ने आज्ञाभंग के अपराध में दंडित किया । ३१०४. राया इव तित्थगरो, जाणवया साधु घोसणं सुत्तं । मेच्छो य असज्झाओ, रतणधणारं च नाणादी ॥ राजा स्थानीय हैं तीर्थंकर, जानपद हैं साधु, घोषणा है सूत्र | म्लेच्छ की भांति है अस्वाध्यायिक, तथा रत्नधन की भांति है ज्ञान आदि । ३१०५. थोवावसेसपोरिसि, अज्झयणं वावि जो कुणइ सोउं । नाणादिसारहीणस्स, तस्स छलणा तु संसारे ॥ स्वाध्याय करते हुए मुनि के यदि उद्देशक अथवा अध्ययन का कुछ भाग अवशिष्ट रह गया हो और प्रहरकाल बीत चुका हो फिर भी मुनि अस्वाध्यायिककाल सुनकर भी स्वाध्याय करता रहता है, तो उसके ज्ञान आदि तीनों सारहीन हो जाते हैं, वह देवताओं द्वारा ठगा जाता है तथा दीर्घकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है। ३१०६. अहवा दिट्ठतऽवरो, जध रण्णो केइ पंच पुरिसा उ । दुग्गादि परितोसितो, तेहि य राया अध कयाई || ३१०७. तो देति तस्स राया, नगरम्मी इच्छियं पयारं तू । गहिते य देति मोल्लं, जणस्स आहारवत्थादी ॥ ३१०८. एगेण तोसिततरो, गिहमगिहे तस्स सव्वहिं वियरे । ... रत्थादीसु चउण्हं, एविध ऽसज्झाइए उवमा ॥ अथवा दूसरा दृष्टांत यह है-एक राजा था। एक बार वह दुर्ग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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