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(३३)
विवरण।
वर्षावास की मर्यादा। वर्तमान में इस मर्यादा के ३७८९-३८०२. क्षुल्लिका एवं महल्लिका मोक प्रतिमा का स्वरूप
अतिक्रमण के कारणों का उल्लेख। एवं विवरण।
३९३२-३९४२. पार्श्वस्थों का स्वरूप। ३८०३-३८०९. मोकप्रतिमा सम्पन्न कर उपाश्रय में अनुसरणीय ३९४३-३९४९. वर्षावास के लिए क्षेत्र की घोषणा तथा बाधाएं। विधि।
३९५०.
क्षेत्र का अन्वेषण और क्षेत्र का व्यवहार। ३८१०. मोकप्रतिमा सम्पन्न साधक के गुण।
३९५१-३९५५. वृषभ क्षेत्र के प्रकार तथा वहां रहने की विधि । ३८११-३८१७. दत्तियों का विवरण।
३९५६,३९५७. पूवसंस्तुत एवं पश्चात्संस्तुत की व्याख्या तथा क्षेत्र ३८१८,३८१९. उपहृत के प्रकार और विवरण।
संबंधी विचार। ३८२०-३८२२. शुद्धि आदि पदों की व्याख्या।
३९५८-३९६०. श्रुतसम्पत् के दो प्रकार तथा विवरण। ३८२३-३८२७. अवगृहीत के तीन प्रकार तथा व्याख्या। ३९६१-३९६३. ज्ञान अभिधारण के विविध विकल्प। ३८२८-३८३०. दीयमान प्रयोग्य तथा सहृत की व्याख्या। ३९६४,३९६५. माता पिता आदि निर्मिन वल्ली और उसके लाभ। ३८३१-३८३६. यवमध्यचन्द्रप्रतिमा तथा वज्रमध्यचन्द्रप्रतिमा का | ३९६६,३९६७. मिश्र वल्ली के अन्तर्गत कौन-कौन ? स्वरूप, दत्तिया तथा संहनन।
३९६८-३९७१. अभिधारक के दो प्रकार और उनका विवरण। ३८३७-४१. प्रतिमाधारी और व्युत्सृष्ट काय।
३९७२-३९७४. अभिधार्यमाण आचार्य के जीवित और कालगत ३८४२.३८५१. उपसर्गों के प्रकार एवं दृष्टान्तों से उनका अवबोध।
अवस्था पर संपादनीय विधि। ३८५२-३८६४. अज्ञातोञ्छ के प्रकार और ग्रहण विधि।
३९७५.
ज्ञान, दर्शन आदि के अभिधार्यमाण का विवरण। ३८६५-३८७७. देहली का अतिक्रमण करने से उत्पन्न दोष। ३९७६. चारित्र के लिए अभिधारण करने के लाभ। ३८७८-३८८०. प्रतिमाधारी द्वारा उद्यान आदि में पिण्ड-ग्रहण की | ३९७७,३९७८. अभिधार्यमाण किसकी निश्रा में ? विधि।
३९७९.
अर्थप्रदाता की बलवत्ता का कथन। ३८८१-३८८५. पांच प्रकार के व्यवहार की उपयोग-विधि। ३९८०. श्रुतसम्पत् का विवरण। ३८८६. आज्ञा के दो प्रकार।
३९८१-३९९३. सुख-दुःख उपसम्पदा का प्रतिपादन। ३८८७.
आज्ञा व्यवहार की आराधना के प्रकार और उसका ३९९३-९९. मार्गोपसम्पद् का विवरण। परिणाम।
४०००-४००७. विनयोपसम्पद् का विवरण। ३८८८. व्यवहार के दो अर्थ।
४००८,४००९. आभवत् व्यवहार का उपनय। ३८८९. व्यवहर्त्तव्य के दो प्रकार-आभवत् और प्रायश्चित्त। ४०१०-४०१९. प्रायश्चित्त व्यवहार के चार प्रकार। ३८९०. आभवत् और प्रायश्चित्त व्यवहार के पांच-पांच ४०२०-४०२२. मागध आदि के दृष्टान्तों से मन से कराना तथा प्रकार।
मन से अनुज्ञा। ३८९१-३८९६. क्षेत्र विषयक आभवत् और क्षेत्र प्रतिलेखना। ४०२३,४०२४. काया से अनुज्ञा। ३८९७. जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट क्षेत्र के गुण। ४०२५-४०२७. प्रमाद विषयक प्रायश्चित्त में नानात्व क्यों ? ३८९८. जघन्य क्षेत्र का स्वरूप।
४०२८. पांच व्यवहारों के नाम। ३८९९. क्षेत्र के चौदह गुण।
४०२९-४०३६. आगम व्यवहार के भेद-प्रभेद। ३९,००,३९०१. वर्षायोग्य क्षेत्र का अनुज्ञापन।
४०३७.
आगमतः परोक्ष व्यवहारी कौन? ३९०२-३९१५. क्षेत्र के अनुज्ञापन में पूर्वनिर्गत, पश्चानिर्गत आदि। । ४०३८. श्रुत से व्यवहार करने वाले आगमव्यवहारी कैसे ? ३९१६-३९२२. क्षेत्र यदि अपर्याप्त हो तो कौन वहां रहे और कौन न | ४०३९. जानने की अपेक्षा केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी की रहे ?
समानता। ३९२३.
आषाढ शुक्ला दशमी को वर्षावास की मर्यादा का | ४०४०,४०४१. प्रत्यक्षज्ञानी और परोक्षज्ञानी में प्रायश्चित्त दान उल्लेख।
की समानता। ३९२४-३९२७. सारूपिक आदि को अनुज्ञापित कर वसति से बाहर | ४०४२-४०४५. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी प्रदत्त प्रायश्चित्त में रहने की विधि।
शिष्य का प्रश्न और गुरु का उत्तर। ३९२८-३९३१. संविग्नबहुल काल में आषढ़ शुक्ला दशमी को ४०४६,४०४७. प्रत्यक्षज्ञानी एवं परोक्षज्ञानी के ज्ञान विषयक धमक
८०.
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