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________________ (३४) का दृष्टान्त। विधान कब तक? ४०४८-४०४९. श्रुतज्ञानी और प्रत्यक्षज्ञानी विशोधि के ज्ञाता। [४१७५-४१७९. प्रायश्चित्तों की यथावत् अवस्थिति में चक्रवर्ती के ४०५०-४०५३. विशोधि की विधि। वर्धकिरत्न का उदाहरण। ४०५४. आगमव्यवहारी के सामने आलोचना करने के गुण। | ४१८०. प्रायश्चित्त के दस प्रकार। ४०५५. द्रव्य पर्याय आदि से आलोचना की परिशुद्धि। ४१८१-४१८३. अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त चतुर्दशपूर्वी ४०५६-४०६०. अज्ञान, भय आदि कारणों से प्रतिसेवना। के साथ विच्छिन्न। ४०६१,४०६२. प्रतिसेवना के कारणों का आगम-विमर्श। ४१८४-४१८७. पुलाक आदि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा उनके ४०६३. आप्स की परिभाषा। प्रायश्चित्तों का विवरण। ४०६४-४०६९. आगमव्यवहारी प्रायश्चित्त कब और कैसे देते हैं ? | ४१८८-४१९३. सामायिक आदि पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ तथा उनके ४०७०-४०७९. आलोचनाह कौन ? प्रायश्चित्तों का विधान। ४०८०-४०८२. आचार्य की आठ संपदाएं तथा उनके भेद-प्रभेद। | ४१९४-४२०३. प्रायश्चित्तों के वाहक क्यों नहीं ? धनिक का ४०८३-४०८६. आचार संपदा के चार प्रकार। दृष्टान्त। ४०८७-४०९०. श्रुत संपदा के चार प्रकार। ४२०४-४२१२. तीर्थ की अव्यवच्छित्ति का उपाय-उपयुक्त ४०९१-४०९४. शरीर संपदा के चार प्रकार। प्रायश्चित्त दान, तिल का दृष्टान्त। ४०९५-४०९७. वचन संपदा के चार प्रकार। ४२१३,४२१४. दर्शन और ज्ञान से ही तीर्थ की रक्षा, पक्ष-विपक्ष ४०९८-४१०३. वाचना संपदा के चार प्रकार। का विवरण। ४१०४-४११५. मति संपदा के चार प्रकार। ४२१५. प्रायश्चित्त के बिना चारित्र की अवस्थिति नहीं। ४११६-४१२४. संग्रह परिज्ञा के चार प्रकार। ४२१६. चारित्र के बिना निर्वाण नहीं। ४१२५.४१२८. व्यवहार समर्थ के ३६ स्थान। ४२१७. तीर्थ और निर्ग्रन्थ अन्योन्याश्रित। ४१२९-३१३१. विनयप्रतिपत्ति के चार भेद। ४२१८. चारित्र की धुरा : महाव्रत और समिति की ४१३२-४१३९. आचार विनय के चार प्रकार तथा उनका विवरण। आराधना। ४१४०-४१४२. श्रुत विनय के चार प्रकार तथा उनका विवरण। ४२१९. तीर्थ की धुरा : ज्ञान और दर्शन की आराधना। ४१४३-४१४९. विक्षेपणा विनय का विवरण। ४२४०. निर्यापकों के प्रकार एवं उनकी अव्यवच्छित्ति। ४१५०-४१५५. दोष-निर्घातन विनय के प्रकार तथा उनका ४२२१-४२२६. तीन प्रकार के अनशनों का विवरण। विवरण। ४२२७-४२३०. नियाघात भक्तपरिज्ञा से संबंधित द्वारों का छत्तीस स्थानों में कुशल ही आगमव्यवहारी। उल्लेख। ४१५७-४१६२. आगमव्यवहारी के अन्यान्य गुण। ४२३१-४२३५. भक्तपरिज्ञा के लिए गणनिस्सरण और परगणगमन ४१६३,४१६४. वर्तमान में आगमव्यवहारी एवं चारित्र शुद्धि का के गुणों का वर्णन। व्यच्छेद। ४२३६,४२३७. प्रशस्त अध्यवसायों में आरोहण का उल्लेख। ४१६५. चतुर्दश पूर्वधर का व्यवच्छेद। ४२३८-४२५०. संलेखना के प्रकार, १२ वर्ष में की जाने वाली ४१६६. केवली आदि के व्यवच्छेद से क्या प्रायश्चित्त का तपस्या का विवरण। भी व्यवछेद ? ४२५१-४२६४. अगीतार्थ के पास अनशन करने के अनेक दोष प्रायश्चित्त के व्यवच्छेद से चारित्र-निर्यापकों की अतः गीतार्थ की मार्गणा करने का निर्देश। व्यवच्छित्ति कैसे? ४२६५-४२६७. असंविग्न के समीप अनशन करने के दोष और ४१६८-४१७१. परोक्षज्ञानी द्वारा प्रायश्चित्त देना महान् पाप, कारण प्रायश्चित्त। का निर्देश। ४२६८-४२७२. संविग्न की मार्गणा का निर्देश। ४१७२. व्यवच्छित्ति के विषय में आचार्य का उत्तर। ४२७३-४२७५. अनशन में अनेक निर्यापक रखने का निर्देश। निशीथ, कल्प और व्यवहार का निर्वृहण नौवें पूर्व | ४२७६-४२७९. अनशन की पारगामिता के लिए देवता आदि का सहयोग, तद्विषयक कंचनपुर की घटना। ४१७४. दस प्रकार के प्रायश्चित्त तथा आठ प्रायश्चित्त का | ४२८०,४२८१. अनशनकर्ता का व्याघात कैसे? से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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