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चिकित्सा संवृत (गुप्तरूप से) अथवा असंवृत रूप से की जाती है। असंवृत चिकित्सा में वह विद्या रात्री में प्रत्यक्ष होती है तब वृषभ मुनि उसे उपालंभ देते हैं (डराते हैं, पीटते हैं), जब तक कि वह मुनि को नहीं छोड़ती ।
११६१. थूममह सहि समणी, बोधियहरणं य निवसुताऽऽतावे ।
मज्झेण य अक्कंदे, कतम्मि जुद्धेण मोएति ॥ मथुरा में स्तूपमह के अवसर पर श्राविकाएं श्रमणियों के साथ गईं। चोर उनका अपहरण कर, जहां राजपुत्र क्षपक धूप मैं आतापना ले रहा था, उसके सामने से उनको ले जाने लगे। स्त्रियों ने आक्रंदन किया। क्षपक ने चोरों के साथ युद्ध कर सभी स्त्रियों को मुक्त करा दिया।
११६२. गामेणारणेण व, अभिभूतं संजतं तु तिरिएणं ।
यद्धं पकंपितं वा रक्खेज्ज अरक्खणे गुरुगा ॥
ग्राम अथवा अरण्य में पशुओं द्वारा अभिभूत अथवा स्तब्ध अथवा प्रकंपित होते हुए मुनि की रक्षा करनी चाहिए। रक्षा नहीं करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ११६२. अभिभवमाणो समणं,
परिग्गहो वा सि वारितो कलहो ।
उवसामेयव्व ततो,
अह कुज्जा दुविधभेदं तु ॥
कोई गृहस्थ साधु का अभिभव कर रहा है, उसके साथ कलह कर रहा है। गृहस्थ के स्वजन उसे निवारित करने पर भी वह कलह करता है तो मुनियों को उस कलह का उपशमन करना चाहिए। उपशांत न करने पर वह गृहस्थ दो प्रकार से अनिष्ट कर सकता है-संयममेद अथवा जीवितभेद ।
१९६४. संजमजीवितभेदे, सारक्खण साधुणो य कायव्वं । पडिवक्खनिराकरणं, तस्स ससत्तीय कायव्वं ॥ संयमभेद अथवा जीवितभेद के प्रसंग में साधु का संरक्षण करना चाहिए तथा उस साधु के जो प्रतिपक्ष हैं उनका स्वशक्ति से निराकरण करना चाहिए।
११६५. अणुसासण भेसणया, जा लदी जस्स तं न हावेज्जा । किं वा सति सत्तीए, होति सपक्खे उवेक्खाए ॥ पहले उसको कोमलवचनों से अनुशासन - समझाना चाहिए। न मानने पर भय दिखाना चाहिए। इतना करने पर भी यदि वह कलह से उपरत नहीं होता है तो जो जिसके पास लब्धि हो उसका प्रयोग करना चाहिए। क्या शक्ति के होने पर कोई स्वपक्ष की उपेक्षा करेगा ?
११६६. अधिकरणम्मि कतम्मि, खामित समुवट्ठितस्स पच्छित्तं । तप्पढमता भएण व, होज्ज किलंतो च वहमाणो ॥
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सानुवाद व्यवहारभाष्य अधिकरण- कलह कर, क्षमायाचना कर समुपस्थित साधु को प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रारंभ में उस मुनि को भय होता है कि मैं प्रायश्चित्त का वहन कैसे करूंगा अथवा प्रायश्चित्त का वहन करता हुआ वह क्लांत होकर ग्लान हो सकता है ! ११६७. पायच्छित्ते दिन्ने, भीतस्स विसज्जणा किलंतस्स ।
अणुसद्विवहंतस्स उ भयेण खित्तस्स तेगिच्छं । प्रायश्चित देने पर जो भीत होकर ग्लान हो जाता है तो उसके प्रायश्चित्त को विसर्जित कर दिया जाता है, छोड़ दिया जाता है। यदि वह प्रायश्चित वहन करता हुआ क्लांत होता है तो उसे अनुशिष्टि- शिक्षा दी जाती है फिर भी वह भय और क्लांति से क्षिप्तचित्त हो जाने पर उसकी चिकित्सा करनी चाहिए । ११६८. पच्छिलं इत्तरिओ, होति तवो वण्णितो उ जो एस।
आवकहिओ पुण तवो, होति परिण्णा अणसणं तू ॥ पूर्व सूत्रों में जो प्रायश्चित्तरूप तप वर्णित है वह इत्वरिक होता है। यह जो परिज्ञारूप तप अनशन है वह यावत्कथिक होता है ।
११६९. अहं वा हेउं वा, समणस्स उ विरहिते कहेमाणो । मुच्छाय विवडियस्स उ, कप्पति गहणं परिण्णाए ॥ साधु एकांत में श्रमण-आचार्य को प्रयोजन और हेतु कहता हुआ, बताता हुआ मूर्च्छा से विपतित आत्मा को स्वस्थ करने के लिए परिज्ञा ग्रहण कर सकता है।
११७०. गीतत्थाणं असती, सव्वऽसतीए व कारणपरिण्णा ।
पाणग- भत्तसमाधि, कहणा आलोग धीरवणा ।। जिसने गीतार्थ मुनियों के अभाव में अथवा सभी साधुओं के अभाव में (एक भी साधु न रहने से) कारणवश परिज्ञा का प्रत्याख्यान कर लिया, उसे पानक-भक्त संबंधी समाधि देनी चाहिए। उसे धर्मकथना तथा आलोचना करानी चाहिए। उसे धीरापन अर्थात् धैर्य रखने की बात बतानी चाहिए। ११७१. जदि वा न निव्वज्जा,
असमाधि वा से तम्मि गच्छम्मि
करणिज्जंणत्थगते,
ववहारो पच्छ सुद्धो वा ॥
यदि वह गृहीत परिज्ञा का निर्वहन नहीं कर सकता, अथवा उसके उस गच्छ में असमाधि है, इस स्थिति में अन्यत्र जाने पर जो कर्तव्य है, वह करना चाहिए, फिर उसे व्यवहार- प्रायश्चित्त देना चाहिए। यदि वह स्वगच्छ की असमाधि मात्र से अन्यत्र जाता है तो यह शुद्ध है, प्रायश्चित्तभाक नहीं है। ११७२. वृत्तं हि उत्तमट्ठे, पडियरणट्ठा व दुक्खरे दिक्खा ।
एतो य तस्समीवं, जदि हीरति अट्ठजायमतो ॥ कहा गया है (कल्पाध्ययन में) कि उत्तमार्थ-परिज्ञा स्वीकार
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