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सानुवाद व्यवहारभाष्य चोयणा करें। उसके निवेदन करने पर वे भी प्रत्युत्तर में यही कहते
जो उपसंपदा ग्रहण करने के लिए आया है उसे पहले दिन ही पूछे कि वह किस कारण से यहां आया है? पहले दिन न पूछने पर आचार्य को लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। दूसरे दिन न पूछने पर गुरुमास और तीसरे दिन भी न पूछने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तीन दिन के पश्चात् पूछने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त विहित है। २९९. कज्जे भत्तपरिणा, गिलाण राया व धम्मकहि-वादी ।
छम्मासा उक्कोसा, तेसिं तु वतिक्कमे गुरुगा ।।
आचार्य कुल, गण, संघ के कार्य में व्याप्त हों, भक्तपरिज्ञा करने वाले साधु के प्रयोजन से व्यस्त हों, ग्लान के प्रयोजन से रुके हों, राजा आदि के लिए धर्मकथा में लगे हों, वादी का निग्रह करने का प्रयोजन हो तो वे उत्कृष्टतः छह मास तक भी आगुंतक को न पूछे तो भी वह मान्य है। उस काल का अतिक्रम होने पर आचार्य को चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ३००. अन्नेण पडिच्छावे, तस्सऽसति सयं पडिच्छते रत्तिं।
उत्तरवीमसाए, खिन्नो य निसिं पि न पडिच्छे ।।
यदि आचार्य के पास कोई अन्य मुनि गीतार्थ हो तो आचार्य उसको आदेश दें कि वह आगंतुक की पृच्छा करे। यदि कोई गीतार्थ मुनि न हो तो स्वयं आचार्य रात्री में उसकी पृच्छा करे। यदि रात्री में भी किसी वादी के उत्तर के विमर्श में आचार्य खिन्न-परिश्रांत हो गये हों तो रात्रि में भी पृच्छा नहीं करतें। ३०१. दोहि तिहिं वा दिणेहिं,
जइ विज्जति तो न होति पच्छित्तं। तेण परमणुण्णवणा,
कुलादि रण्णो व दीवेंति ।। छह मास के पश्चात् भी यदि दो-तीन दिनों में आचार्य के कार्य से निवृत्त होने की संभावना हो तो इन दिनों में आंगतुक उपसंपद्यमान को न पूछने पर भी कोई प्रायश्चित्त नहीं आता। यदि कार्य पूरा न हो तो कुल आदि को एक दिन की संभाव्यमान अनुज्ञापना करनी चाहिए। वादी विषयक कारण होतो राजा को बताना चाहिए। (आचार्य राजा को कहे कि मैं एक दिन के लिए व्यस्त रहूंगा। ऐसा न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३०२. आलोयण तह चेव य, मूलुत्तर नवरि विगडिते मंतु |
इत्थं सारण चोयण, निवेदणं ते वि एमेव ।।
उपसंपद्यमान भी पूर्ववत् आलोचना करे अर्थात् पहले मूलगुणों के अतिचारों की क्रमशः आलोचना करे, फिर उत्तरगुणों के अतिचारों की आलोचना करे। आलोचना करने के पश्चात् मुनियों को वंदना कर यह कहे-आप मेरी सारणा-
३०३. एमेव य अवराहे, किं ते न कया तहिं चिय विसोधी ।
अहिकरणादी साहति, गीयत्थो वा तहिं नत्थि ।। ३०४. नत्थि इह पडियरगा, खुलखेत्त उग्गमवि य पच्छित्तं ।
संकितमादी व पदे, जधक्कम ते तह विभासा ।।
इसी प्रकार अपराधालोचना के विषय में जानना चाहिए। कोई अपराधालोचक शिष्य उपसंपदा के लिए आया है। आचार्य कहते हैं-तुमने अपने गच्छ में ही अपराध की विशोधि क्यों नहीं की? वह अधिकरण आदि की बात कहता है अथवा कहता है कि वहां कोई गीतार्थ नहीं है। वहां प्रतिचारक नहीं है। वहां का खुलक्षेत्र है-मंदभिक्षा वाला क्षेत्र है। तब आचार्य कहते हैं-हमारे गण में भी उग्र प्रायश्चित्त दिया जाता है। वे उसे शंकित, संघाटक आदि पद (गाथा २७६) यथाक्रम विस्तार से बतलाते हैं। उसे उपसंपदा न दें। ३०५. दव्वादिचतुरभिग्गह, पसत्थमपसत्थए दुहेक्केक्के ।
अपसत्थे वज्जेउं, पसत्थएहिं तु आलोए ।।
अपराधालोचना देते समय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावइन चारों की तथा अभिग्रह अर्थात् दिशाभिग्रह की अपेक्षा रहती है। द्रव्य आदि चारों तथा दिशा इन प्रत्येक के प्रशस्त और अप्रशस्त दो-दो प्रकार होते हैं। अप्रशस्त द्रव्य आदि तथा दिशा का परिहार कर प्रशस्त द्रव्य आदि में तथा प्रशस्त दिशा में आलोचना करनी चाहिए/देनी चाहिए। ३०६. भग्गघरे कुड्डेसु य, रासीसु य जे दुमा य अमणुण्णा ।
तत्थ न आलोएज्जा, तप्पडिवक्खे दिसा तिण्णि ।।
भग्नगृह, जहां कुड्यमात्र शेष हो वैसा गृह, अनमोज्ञ. धान्यराशि तथा वृक्ष के पास आलोचना न करे। अप्रशस्त दिशाओं में भी आलोचना न करे। इनके प्रतिपक्ष अर्थात् प्रशस्त द्रव्य तथा प्रशस्त तीन दिशाएं--पूर्व, उत्तर और चरंती अर्थात् जिस दिशा में तीर्थंकर आदि विहरण कर रहे हों-इनमें आलोचना करे। ३०७. अमणुण्णधन्नरासी, अमणुण्णदुमा य होति दव्वम्मि ।
भग्गघर-रुद्द-ऊसर, पवाय दड्डादि खेत्तम्मि ।। अप्रशस्त द्रव्य ये हैं-अमनोज्ञ धान्यराशि, अमनोज्ञ वृक्ष।
अप्रशस्त क्षेत्र ये हैं-भग्नगृह, रुद्रगृह, ऊषरभूमी, प्रपात, दग्धस्थान आदि। ३०८. निप्पत्त कंटइल्ले, विज्जुहते खार-कडुग-दड्ढे य ।
अय-तउय-तंब-सीसग, दव्वे धन्ना य अमणुण्णा ।।
अमनोज्ञ वृक्ष-निष्पत्र-करीर आदि, कंटकी-बदरी, बबूल आदि, विद्युत् के गिरने से भग्न, क्षाररस वाले, कटुकरसवाले
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