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________________ पहला उद्देशक तथा दग्ध वृक्ष । ये वर्जनीय हैं। लोह, त्रपु, तांबा, शीशा, आदि के ढेर द्रव्यतः वर्जनीय हैं। अमनोज्ञ धान्यराशि भी वर्जनीय है। ३०९. पडिकुट्ठेल्लगदिवसे, वज्जेज्जा अट्ठमिं च नवमिं च । छट्ठि च चउत्थिं च, बारसिं दोन्हं पि पक्खाणं ।। दोनों पक्षों- (शुक्ल कृष्णपक्ष) की प्रतिषिद्ध तिथियां वर्जनीय हैं। जैसे अष्टमी, नवमी, छठ, चतुर्थी, द्वादशी। यह कालतः वर्जनीय है, अप्रशस्त है। ३१०. संझागतं रविगतं, विड्डेरं संगहं विलंबिं च ॥ राहुतं गहभिनं व वज्जए सत्तनक्खते ।। वर्जनीय सात नक्षत्र-संध्यागत, रविगत, विद्वार, संग्रह, विलंब राहत, ग्रहभिन्न । ३११. संझागतम्मि कलहो, होइ कुभत्तं विलंबिनक्खत्ते । विड्डेरे परविजयो, आदिच्चगते अनिव्वाणी ।। ३१२. जं संगहम्मि कीरति नक्खते तत्थ वुग्गहो होति । राहुहयम्मि य मरणं, गहभित्रे सोहिउम्गालो || इन सात नक्षत्रों के ये दोष हैं संध्यागत नक्षत्र में कलह, विलंबि नक्षत्र में कुमक्त की प्राप्ति, विद्वार नक्षत्र में शत्रु की विजय, रविगत नक्षत्र में असुख, संग्रह नक्षत्र में व्युद्ग्रह - संग्राम, राहुहत नक्षत्र में मरण तथा ग्रहभिन्न नक्षत्र में खून का वमन । इन अप्रशस्त नक्षत्रों में आलोचना न करे । ३१३. तप्पडिवक्खे खेत्ते, उच्छुवणे सालि चेझ्यघरे वा । गंभीरसाणा, पयाहिणाक्तउवए य ।। पूर्वोक्त अप्रशस्त क्षेत्र का प्रतिपक्ष अर्थात् प्रशस्त क्षेत्र ये हैं- इक्षुवन, शालिवन, चैत्यगृह, गंभीरस्थान, सानुनाद प्रतिध्वनित होने वाला स्थान तथा प्रदक्षिणावर्तउदक वाली नदी अथवा सरोवर के निकट का स्थान । ३१४. उत्तदिणसेसकाले उच्चट्ठाणा गहा य भावम्मि । पुव्वदिसि उत्तरा वा, चरंतिया जाव नवपुव्वी ।। अष्टमी आदि उक्त अप्रशस्त तिथियों के अतिरिक्त द्वितीया आदि तिथियां प्रशस्त होती हैं। (उनमें व्यतिपात आदि दोष न हो १. संध्यागत-सूर्य के पृष्ठस्थित नक्षत्र अथवा जिसके उदित होने पर सूर्य उदित होता है अथवा जहां रवि ठहरता है। चौदहवां या पंद्रहवां नक्षत्र । रविगत-जहां रवि ठहरता है ! विद्वार - जैसे पूर्वद्वारिक नक्षत्र पूर्वदिशा की ओर जाने के बदले अपर दिशा की ओर जाता है तब वह विद्वारिक कहलाता है। संग्रह - क्रूर ग्रह से आक्रांत नक्षत्र । विलंब - जो सूर्य द्वारा परिभुक्त होकर मुक्त हो गया है। अथवा सूर्य के आगे पीछे या अनंतर संध्यागत नक्षत्र, अथवा सूर्यगत Jain Education International ३५ तथा प्रशस्त करण और प्रशस्त मुहूर्त्त हो यह प्रशस्तकाल है ।) भावतः प्रशस्त - ग्रह उच्चस्थानगत हों। पूर्व दिशा, उत्तर दिशा तथा चरंती दिशा अर्थात् जिस दिशा में अर्हत्, केवलज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी यावत् नौपूर्वी अथवा युगप्रधान आचार्य विहरण कर रहे हों, वह प्रशस्त दिशा है। (आलोचनार्ह इन दिशाओं के अभिमुख होकर आलोचना करे ।) ३१५. निसेज्ज ऽसति पडिहारिय कितिकम्मं काउ पंजलुक्कुडुओ । बहुपडि सेवऽरिसासु य, अण्णावेउ निसेज्जगतो ।। वह उपसंपद्यमान शिष्य अपने नये वस्त्रों से आचार्य के लिए निषद्या तैयार करता है। स्वयं के पास कल्प न हो तो प्रातिहारिक - दूसरों से वस्त्र लेकर निषद्या तैयार करता है। फिर वह कृतिकर्म ( द्वादशावर्त) वंदनक देता है वह फिर हाथ जोड़कर उकडू आसन में (आचार्य के वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख अथवा चरंती दिशा के अभिमुख होकर बैठता है। यदि आलोचक ने अनेक प्रतिसेवनाएं की हैं और उनकी आलोचना में दीर्घकाल लगता हो तथा वह अर्श के रोग से ग्रस्त हो तो गुरु को अनुज्ञापित कर निषद्या पर स्थित होकर ही आलोचना करे। ३१६. चेयणमचित्तदव्वे, जणवयमद्भाण होति खेत्तम्मि । दिणनिसि सुभिक्खदुभिक्खकाले भावम्मि हट्ठितरे ।। द्रव्यतः सचित्त, अचित्त (तथा मिश्र) द्रव्य अकल्पिक की प्रतिसेवना की हो, क्षेत्रतः जनपद में या मार्ग में, कालतः दिन में अथवा रात में सुभिक्षकाल में अथवा दुर्भिक्षकाल में, भावतः हृष्टपुष्ट अवस्था में अथवा ग्लान अवस्था में, यतनापूर्वक दर्प से अथवा कल्प से की गयी प्रतिसेवना की वह आलोचना करे। ३१७. लघुयल्हादीजणणं, अप्पपरनियत्ति अज्जवं सोही दुक्करकरणं विणओ, निस्सल्लत्तं व सोधिगुणा ।। लघुता की वृद्धि, आह्लाद की उत्पत्ति, स्वयं के दोषों से निवृत्ति, दूसरों में आलोचनाभिमुखता से दोषों से निवृत्ति, आर्जव ऋजुता की वृद्धि, आत्मा और चारित्र की विशोधि नक्षत्रों के पीछे से तीसरा । राहुहत- सूर्यग्रहण अथवा चंद्रग्रहण का नक्षत्र । ग्रहभिन्न- जिसके मध्य से ग्रह गया है वह नक्षत्र । ये सातों नक्षत्र चंद्रयोगयुक्त हैं। ये वर्ज्य हैं। (वृत्ति पत्र ४१ ) २. सूर्य का मेष, चंद्रमा का वृषभ, मंगल का मकर, बुध का कन्या, बृहस्पति का कर्कटक, शुक्र का मीन और शनैश्चर का तुला ये ग्रहों के उच्चस्थानीय हैं। सभी ग्रहों के स्व के उच्चस्थान से सातवां स्थान नीच स्थान है। (वृ. पत्र ४१ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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