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________________ सानुवाद व्यवहारभाष्य दुष्करकारिता, चारित्रविनय की प्राप्ति, निःशल्यता- ये ३२१. तिन्नि उ वारा जह दंडियस्स पलिउंचियम्मि अस्सुवमा। आलोचना अर्थात् शोधि के गुण हैं। सुद्धस्स होति मासो, पलिउंचिते तं विमं चण्णं ।। ३१८. आगम-सुतववहारी, आगमतो छव्विहो उ ववहारी। जैसे दंडिक-न्यायाधिपति अपराधी को अपने अपराध का केवल-मणोधि-चोद्दस-दस नवपुव्वी य नायव्वो।। विवरण तीन बार सुनाने के लिए, यह जानने के लिए कहता है, आलोचनाह के दो प्रकार हैं-आगमव्यवहारी और श्रुत- कि यह मायावी है.या नहीं, वैसे ही श्रुतव्यवहारी गुरु भी व्यवहारी। आगमव्यवहारी के छह प्रकार हैं-केवलज्ञानी, अतिचार से पीड़ित शिष्य को अपना अतिचार प्रकट करने के मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी तथा नौपूर्वी- लिए तीन बार कहते हैं। जब उसकी माया ज्ञात हो जाती है तब ये प्रत्यक्षज्ञानी होते हैं। (पूर्वो से समुत्थित ज्ञान प्रत्यक्षतुल्य है।) उसे अश्व का दृष्टांत कहते हैं। यदि वह शुद्ध है, मायावी नहीं है ३१९. पम्हुतु पडिसारण, अप्पडिवज्जंतयं न खलु सारे। तो उसे एक मास का प्रायश्चित्त आता है और यदि उसने जइ पडिवज्जति सारे, दुविहऽतियारं पि पच्चक्खी ।। मायापूर्वक आलोचना की है तो मायानिष्पन्न गुरुमास का आगमव्यवहारी दो प्रकार के हैं-प्रत्यक्षज्ञानी और प्रायश्चित्त मूल प्रायश्चित्त के साथ और जुड़ जाता है। अप्रत्यक्षज्ञानी। आलोचना भी दो प्रकार की होती है-मूलगुण- ३२२. अत्थुप्पत्ती असरिसनिवेयणे दंड पच्छ ववहारो। विषयक अतिचारों की आलोचना तथा उत्तरगुणविषयक इय लोउत्तरियम्मि वि, कुंचियभावं तु दंडेति ।। अतिचारों की आलोचना। आलोचक यदि आलोचनीय तथ्य को करण (न्यायालय) में व्यवहार अर्थ की उत्पत्ति का साधन भूल जाता है तो वे आगमव्यवहारी उसे याद दिला देते हैं। वे यदि है। न्यायाधिपति के समक्ष अपराधी बार-बार पूछने पर यदि यह जान जाते हैं कि यह कहने पर भी स्वीकार नहीं करेगा तो वे असदृश निवेदन करता है तो माया के अपराध में वह दंडित होता उसे आलोचनीय की स्मृति नहीं कराते। यदि यह जान जाते हैं कि है, फिर मूल अपराध के अनुसार दंड दिया जाता है। यह लौकिक यह कहने पर स्वीकार कर लेगा तो उसे आलोचनीय की स्मृति विधि है। करा देते हैं। लोकोत्तर व्यवहार में भी यदि आलोचना करने वाला मुनि ३२०. कप्पपकप्पी तु सुते, आलोयाति ते उ तिक्खुत्तो। माया का सहारा लेता है तो उसे पहले मायानिष्पन्न मासगुरु का सरिसत्थमपलिकुंची, विसरिसपरिणामतो कुंची ।। दंड देते हैं फिर यथाप्राप्त मासिक आदि दंड देते हैं। कल्पधर अर्थात् दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प और ३२३. आगारेहि सरेहि य, पुव्वावर-वाहताहि य गिराहि । व्यवहार-इनके सूत्रार्थ के धारक तथा प्रकल्पधर अर्थात् निशीथ नाउं कुंचियभावं, परोक्खनाणी ववहरंति ।। के सूत्रार्थधर (तथा महाकल्पश्रुत, महानिशीथ तथा नियुक्ति- परोक्षज्ञानी अर्थात् श्रुतव्यवहारी आचार्य आलोचक के पीठिकाधर) ये श्रुतव्यवहारी हैं। ये आलोचक को तीन बार आकार-शरीरगतभाव, स्वर-उच्चारण तथा पूर्वापरव्याहतआलोचना करने के लिए कहते हैं। तीनों बार यदि सदृशार्थ की पूर्वापरविसंवादिनी वाणी के द्वारा उसके कुटिलभाव को जानकर आलोचना की हो तो जानना चाहिए कि आलोचक अप्रतिकुंच- व्यवहार करते हैं-पहले माया प्रत्यय का दंड देते हैं, फिर अपराध अमायावी है और यदि असदृश आलोचना की हो तो जानना प्रत्यय के अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं। चाहिए कि यह परिणामतः कुंची-मायावी है।' ३२४. कुंचिय जोहे मालागारे, मेहे पलिउंचिते तिगट्ठाणा। पंचगमा नेयव्वा, बहूहिं उक्खड्डमड्डाहिं ।। १. पहली बार आलोचना करने पर कहे-मैं निद्रा प्रमाद में चला गया एक छोटे धनुष्य से उस बाण को छोड़ा। वह बाण अश्व को लगा अतः पूरी बात सुन नहीं सका, अतः पुनः आलोचना करो। दूसरी और उस कंटक की अग्र अणी घोडे के शरीर में प्रविष्ट हो गयी। उसी बार कहे-मैंने तुम्हारे अतिचारों की पूरी अवधारणा नहीं की। तीसरी दिन से अश्व सूखने लगा। राजा चिंतित होकर वैद्य को बुलाया। वैद्य बार आलोचना करने पर यह प्रतीत हो कि तीनों बार इसने समान ने अश्व का निरीक्षण कर रोग का कारण जान लिया। उसने एक अतिचारों की आलोचना की है तो जानना चाहिए कि यह अमायावी साथ अनेक कर्मकरों को कहकर अश्व के पूरे शरीर पर एक साथ (वृ पत्र ४३) मिट्टी का लेप करवाया। वैद्य देख रहा था। शरीर के जिस भाग पर २. एक राजा के पास सर्वलक्षणयुक्त एक अश्व था। उसके कारण राजा वह लेप पहले सूखा, वैद्य ने उस भाग से उस कंटक के शल्य को अजेय बन गया था। अन्य सामंत राजाओं ने उस अश्व के अपहरण निकाल दिया। अश्व स्वस्थ होने लगा। की बात सोची। परंतु उसकी सुरक्षा देखते हुए अपहरण करना आचार्य ने कहा-शिष्य! तुम भी अपने हृदय को सरल बनाकर असंभव था। एक व्यक्ति ने उसको मारने का बीड़ा उठाया। उसने शल्य का अपनयन करो। माया मत करो। माया बड़ा शल्य है। गुप्त रूप से एक कोमल बाण के अग्रभाग में क्षुद्रकीकंटक लगाकर (वृ. पत्र ४४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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