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________________ आठवां उद्देशक ३२१ ३५४४. बितियपदे न गेण्हेज्ज, विविंचिय दुगुंछिते असंविग्गे। ३५५१. पंथे वीसमणनिवेसणादि सो मासो होति लहुगो उ। तुच्छमपयोयणं वा, अगेण्हता होतऽपच्छित्ती।। आगंतारट्ठाणे, लहुगा आणादिणो दोसा।। अपवाद पद का कथन है कि जो गिरा हुआ है उसे ग्रहण न मार्ग में विश्राम करता है, निवास आदि करता है (खड़ा करे। यह माने कि यह परिष्ठापित है, जुगुप्सित है, अथवा यह रहता है, बैठता है, सोता है, उच्चार-प्रस्रवण का व्युत्सर्ग करता असंविग्नों का है, तुच्छ है, अप्रयोजनीय है-ऐसे उपकरण को न है) तो उस समाचारी से निष्पन्न प्रायश्चित्त है एक लघुमास का। ग्रहण करता हुआ मुनि अप्रायश्चित्ती होता है। सार्वजनिकविश्राम स्थलों में विश्राम आदि करता है तो चार लघु३५४५. अंतो विसगलजुण्णं, विविंचितं तं च दटुं नो गिण्हे। मास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष उत्पन्न होता है। असुइट्ठाणे वि चुतं, बहुधा वालादि छिन्नं वा॥ ३५५२. मिच्छत्तअन्नपंथे, धूली उक्खणण उवधिणो विणासो। ग्राम आदि में परिपूर्ण जीर्ण वस्त्र को पड़ा देखकर वह माने ते चेव य सविसेसा, संकादि विविंचमाणे वी॥ कि वह परिष्ठापित है। उसे देखकर ग्रहण न करे। इसी प्रकार मिथ्यात्व, अन्यपथ, धूली उत्खनन, उपधि का विनाश, वे अशुचि स्थानों में पड़ा हुआ तथा बहुधा व्याल आदि से छिन्न ही, सविशेष, शंकादि दोष, विविंचना भी (विस्तार से आगे की वस्त्र भी ग्रहण न करे। गाथाओं में।) ३५४६. हीणाहियप्पमाणं, सिव्वणि चित्तल विरंग भंगी वा। ३५५३. पंथे न ठाइयव्वं, बहवे दोसा तहिं पसज्जंति। एतेहि असंविग्गोवहि त्ति द8 विवज्जंती॥ . अब्भुट्ठिता ति गुरुगा, जं वा आवज्जती जत्तो।। हीन या अधिक प्रमाण वाला, सीवनी से विचित्र प्रकार से मार्ग में नहीं रहना चाहिए। उससे अनेक दोष उत्पन्न होते सीआ हुआ तथा विविध रंगों से रेखांकित किए हुए वस्त्र को गिरा हैं। मार्ग में बैठा हुआ मुनि यदि दूसरों को देखकर अभ्युत्थान देखकर इन कारणों से यह जाने कि यह असंविग्न की उपधि है, करता है तो देखने वाले मानते हैं कि श्रमण ने इनको बहुमान उसे न उठाए, उसका विवर्जन करे।। दिया है। इसका प्रायश्चित्त है चार गुरुमास। इसे देखकर अनेक ३५४७. एमेव य बितियपदे, अंतो मुवरि ठवेज्जउ इमेहिं। व्यक्ति मिथ्यात्व को प्राप्त हो सकते हैं। तुच्छो अतिजुण्णो वा, सुण्णे वावी विविंचेज्जा। ३५५४. जाणंति अप्पणो सारं, एते समणवादिणो। इसी प्रकार गांव आदि में गिरे हुए वस्त्र को अपवाद पद में सारमेतेसि लोगो यं, अप्पणो न वियाणती॥ भी इन कारणों से ग्रहण न करे। वह उपकरण तुच्छ है, अतिजीर्ण ये श्रमणवादी साधु इस परमार्थ को जानते हैं (कि हमारे से ये ब्राह्मण महान् हैं।) किन्तु उनके अनुयायी इस सारतत्त्वहै, शून्य में परिष्ठापित है, ऐसा सोचकर उसे ग्रहण न करे। यथार्थता को नहीं जानते। ३५४८. एमेव य बहिया वी, वियारभूमीय होज्ज पडियं तु। ३५५५. अण्णपधेण वयंते, काया सो चेव वा भवे पंथो। तस्स वि एसेव गमो, होति य नेओ निरवसेसो॥ अचियत्तऽसंखडादी, भाणादिविराधणा चेव॥ इसी प्रकार गांव आदि के बाहर, विचारभूमी में वैसा वस्त्र साधु को मार्ग में बैठे हुए देखकर पथिक अन्य पथ से जाते पड़ा हो तो उसके लिए भी यही प्रकार संपूर्णरूप से ज्ञातव्य है। हैं। उसमें हरितकाय आदि की विराधना होती है, क्योंकि वही पथ ३५४९. गामो खलु पुव्वुत्तो, दूइज्जंते तु दोन्नि उ विहाणा। हो तो महान् प्रवर्तनदोष होता है। किसी पथिक को अप्रीति हो अन्नतरग्गहणेणं, दुविधो तिविधो व उवधी तु॥ सकती है, परस्पर कलह आदि हो सकता है, भाजन आदि की __ ग्राम पूर्वोक्त है। ग्रामानुग्राम-यहां ग्राम-अनुग्राम यह दो का विराधना हो सकती है। आदि शब्द से भावतः शरीर की विराधना विधान ऋतुबद्ध काल से संबंधित है। ग्रामानुग्राम विहरण करते हो सकती है। हुए मुनि के दो अथवा तीन प्रकार की उपधि में से कोई भी उपधि ३५५६. सरक्खधूलिचेयण्णे, पत्थिवाणं विणासणा। गिर पड़े तो (उसे यतनापूर्वक ग्रहण कर ले अथवा पूर्वविधि से अचित्तरेणुमइलम्मि, दोसा धोव्वणऽधोव्वणे॥ उसका परिष्ठापन कर दे।) सरजस्क धूली की चेतना से पृथ्वीकायिक जीवों का विनाश ३५५०. पंथे उवस्सए वा, पासवणुच्चारमाइयंते वा। होता है। यदि वह अचित्त रेणु हो तो उससे उपधि मलिन होती है। पम्हुसती एतेहिं, तम्हा मोत्तूणिमे ठाणा॥ उसको धोने में भी दोष है और न धोने में भी दोष है। वह उपकरण मार्ग में, उपाश्रय में अथवा प्रस्रवण, उच्चार ३५५७. वेगाविद्धा तुरंगादी, सहसा दुक्खनिग्गहा। करते समय, आचमन के समय-इन स्थानों में विस्मृति के कारण परम्मुहं मुहं किच्चा, पंथा ठाणं पणोल्लए। गिर गया है। इसलिए इन स्थानों का वर्जन करे। वेग से आते हुए घोड़ों आदि का निग्रह करना कष्टप्रद होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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