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________________ ३२२ सानुवाद व्यवहारभाष्य है। कुछेक प्रांत व्यक्ति घोड़ों आदि को पराङ्मुख कर पथ में स्थित ३५६३. पंथे ठितो न पेच्छति, परिहरिया पुव्ववण्णिया दोसा। मुनि को उठने के लिए प्रेरित करते हैं। ' बितियपदे असतीए, जयणाए चिट्ठणादीणि ।। ३५५८. पम्हुट्ठमवि अन्नत्थ जइच्छा कोवि पेच्छती। मार्ग में जाता हुआ पथिक मार्गस्थित साधु को न देख सके पंथे उवरि पम्हुटुं, खिप्पं गेण्हंति अद्धगा। वैसे बैठना चाहिए। इस प्रकार पूर्ववर्णित दोष परिहृत हो जाते हैं। अन्यत्र कहीं विस्मृत उपकरण की यदृच्छा से कोई व्यक्ति द्वितीय पद-अपवादपद में उद्वर्तन का अभाव होने पर यतनापूर्वक मार्ग में देखता है, गवेषणा करता है, मार्ग में पतित वस्तु को बैठना-उठना आदि कर सकता है। पथिक शीघ्रता से ग्रहण कर लेते हैं इसलिए मार्ग में विश्राम नहीं ३५६४. संकठ्ठ हरितछाया, असती गहितोवही ठितो उहे। करना चाहिए। उठूति व अप्पत्ते, सहसा पत्ते ततो पढेि। ३५५९. एवं ठितोवविठ्ठ, सविसेसतरा भवंति उ निवण्णे। संकट-वह मार्ग जो अहाते में हो, वहां तथा चारों ओर दोसा निद्दपमादं, गते य उवधिं हरंतऽण्णे॥ हरियाली ही हरियाली हो तो उद्वर्तन करना असंभव होता है, इस प्रकार मार्ग में स्थित, अथवा उपविष्ट होने पर अनेक ऐसी स्थिति में मुनि अपने उपकरणों सहित वहां मार्ग में स्थित हो दोष उत्पन्न होते हैं तथा मार्ग में सोने पर विशेषतर दोष होते हैं। जाए। अन्य पथिकों को आते देखकर तत्काल उठ जाए अथवा वे मुनि के निद्रा-प्रमाद में चले जाने पर उनकी उपधि का अपहरण पथिक उस प्रदेश तक न पहुंचे, उससे पहले ही उठ जाए। यदि हो सकता है। पथिक सहसा आ जाए तो उनकी ओर पीठ कर उठ जाए। ३५६०. उच्चारं पासवणं अणुपंथे चेव आयरंतस्स। ३५६५. भुंजणपियणुच्चारे, जतणं तत्थ कुव्वती। लहुगो य होति मासो, चाउम्मासो सवित्थारो॥ उदाहडा य जे दोसा, पुव्वं तेसु जतो भवे॥ उच्चार, प्रस्रवण का व्युत्सर्ग अनुपंथा-पथिकों के अनुकुल मार्गस्थित मुनि को भोजन, पान और उच्चार विषयक मार्ग पर करने से लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उनको यतना करनी होती है। पहले जो दोष बताए गए हैं उनके विषय में व्युत्सर्ग करते देखकर कुछ पथिक मार्ग बदलने पर मुनियों को यतनावान् हो। सविस्तार चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ३५६६. गंतव्व पलोएउं, अकरणे लहुगो य दोस आणादी। ३५६१. छड्डावणमन्नपहो, दवासती दुब्मिगंध कलुसप्पे। पम्हुट्ठो वोसढे लहुगो आणादिणो चेव॥ तेणो त्ति व संकेज्जा , आदियणे चेव उड्डाहो।। मार्ग में विश्राम कर उठकर जाने लगे तो पीछे अवश्य देखे। मार्ग में उच्चार का व्युत्सर्ग करते देखकर कोई व्यक्ति यदि अवलोकन नहीं करता है तो प्रायश्चित्त है लघुमास का तथा कुपित होकर मुनि को उच्चार को उठाने के लिए बाध्य कर आज्ञाभंग आदि दोष प्राप्त होते हैं। यदि कुछ उपकरण आदि गिर सकता है। अथवा वहां से उठाकर अन्य पथ पर व्युत्सर्ग करने के गया हो औरउसकी विस्मृति हो गई हो तो स्मृति होने पर उसे लिए कह सकता है। मार्ग में शौच आदि के लिए द्रव-पानी का लेने जाए। यदि उस वस्तु का व्युत्सर्ग कर देता है (यह सोचकर अभाव होने पर दुरभिगंध फैल सकती है। कोई कलुषित आत्मा। कि उससे क्या?) तो उसका प्रायश्चित्त है लधुमास आज्ञाभंग वाला व्यक्ति यह शंका कर सकता है कि यह कोई चोर, हेरिक आदि दोष। अथवा अभिचारक हो सकता है। उसका निग्रह होने पर प्रवचन ३५६७. पम्हुढे गंतव्वं, अगमणे लहुगो य दोस आणादी। का उड्डाह होता है। ( इसलिए मार्ग में विश्राम आदि नहीं करना निक्कारणम्मि तिन्नी, उ पोरिसीकारणे सुद्धो। चाहिए।) विस्मृत वस्तु के लिए अवश्य गमन होता है। न जाने पर ३५६२. अच्चातव दूरपहे असहू भारेण खेदियप्पा वा।। लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। अपाय छन्ने वा मोत्तु पह, गामसमीवे य छन्ने वा॥ आदि कारण न हो तो अवश्य जाकर लाना चाहिए। प्रथम पौरुषी (मार्ग में विश्राम करने का अपवाद मार्ग) अत्यंत आतप में कोई वस्तु गिरी और विस्मृत हो गई। चतुर्थ पौरुषी में उसकी हो, वृक्ष मार्ग से दूर हों, निकटतम वृक्ष तक जाने में असमर्थ हो, स्मृति हुई तब प्रथम तीन पौरुषियों को छोड़कर चौथे प्रहर में भार से परिश्रांत हो, यदि मार्ग दोनों ओर से वृक्षों से आच्छादित जाकर उस वस्तु को ले आए। प्रत्यवाय का कारण हो तो हो और निर्भय हो तो पथ को छोड़कर और भय हो तो मार्ग में ही, अनिवर्तमान भी शुद्ध होता है। गांव के समीप वृक्ष से आच्छन्न मार्ग में-इन स्थितियों में मार्ग में ३५६८. चरमाए वि नियत्तति, जदि वासो अत्थि अंतरा वसिमे। विश्राम करने का अपवाद है। तिण्णि वि जामे वसिउं, नियत्तति निरच्चए चरिमे ।। १. सविस्तार का तात्पर्यार्थ है-स्त्री आदि के साथ होने वाले संघट्टन आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त के साथ। (वृत्ति) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001944
Book TitleSanuwad Vyavharbhasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages492
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G005
File Size14 MB
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